"महाभारत विराट पर्व अध्याय 21 श्लोक 17-32" के अवतरणों में अंतर

छो (Text replacement - " !" to "! ")
छो (Text replacement - " ।" to "। ")
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
 
अब तुम थोड़े दिनों तक और ठहर जाओ। वर्ष पूरा होने में महीना- आध-महीना रह गया है। तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होते ही तुम राजरानी बनोगी। देवि!  मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ, ऐसा ही होगा; यह टल नहीं सकता। तुम्हें सभी श्रेष्ठ स्त्रियों के समक्ष अपना आदर्श उपस्थित करना चाहिये।। भामिनी!  तुम अपनी पतिभक्ति तथा सदाचार से सम्पूर्ण नरेशों के मस्तक पर स्थान प्राप्त करोगी और तुम्हें दुर्लभ भोग सुलभ होंगे।
 
अब तुम थोड़े दिनों तक और ठहर जाओ। वर्ष पूरा होने में महीना- आध-महीना रह गया है। तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होते ही तुम राजरानी बनोगी। देवि!  मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ, ऐसा ही होगा; यह टल नहीं सकता। तुम्हें सभी श्रेष्ठ स्त्रियों के समक्ष अपना आदर्श उपस्थित करना चाहिये।। भामिनी!  तुम अपनी पतिभक्ति तथा सदाचार से सम्पूर्ण नरेशों के मस्तक पर स्थान प्राप्त करोगी और तुम्हें दुर्लभ भोग सुलभ होंगे।
  
द्रौपदी ने कहा- प्राणनाथ भीम!  इधर अनेक प्रकार के दुःखों को सहन करने में असमर्थ एवं आर्त होकर ही मैंने ये आँसू बहाये हैं। मैं राजा युधिष्ठिर को उलाहना नीं दूँगी। महाबली भीमसेन!  अब बीती बातों को दुहराने से क्या लाभ ? इस समय जिसका अवसर उपस्थित है, उस कार्य के लिये तैयार हो जाओ । भीम!  केकयराजकुमारी सुदेष्णा यहाँ मेरे रूप से पराजित होने के कारण सदा इस शंका से उद्विग्न रहती हैं कि राजा विराट किसी प्रकार इस पर आसक्त न हो जायँ। जिसका देखना भी अनृत (पापमय) है, वही यह परम दुष्टात्मा कीचक रानी सुदेष्णा के उक्त मनोभाव को जानकर सदा स्वयं आकर मेरे आगे पार्थना किया करता है । भीम!  पहले-पहल उसके ऐसा कहने पर में कुपित हो उठी; किंतु पुनः क्रोध के वेग को रोककर बोली- ‘कीचक!  तू काम से मोहित हो रहा है। अरे!  तू अपने आपकी रक्षा कर । ‘मैं पाँच गन्धर्वों की पत्नी तथा प्यारी रानी हूँ। वे साहसी तथा शूरवीर गन्धर्व तुम्हें कुपित होकर मार डालेंगे’। मेरे ऐसा कहने पर महा दुष्टात्मा कीचक ने उत्तर दिया- ‘पवित्र मुसकान वाली सैरन्ध्री!  मैं गन्धर्वों से नहीं डरता।  
+
द्रौपदी ने कहा- प्राणनाथ भीम!  इधर अनेक प्रकार के दुःखों को सहन करने में असमर्थ एवं आर्त होकर ही मैंने ये आँसू बहाये हैं। मैं राजा युधिष्ठिर को उलाहना नीं दूँगी। महाबली भीमसेन!  अब बीती बातों को दुहराने से क्या लाभ ? इस समय जिसका अवसर उपस्थित है, उस कार्य के लिये तैयार हो जाओ।  भीम!  केकयराजकुमारी सुदेष्णा यहाँ मेरे रूप से पराजित होने के कारण सदा इस शंका से उद्विग्न रहती हैं कि राजा विराट किसी प्रकार इस पर आसक्त न हो जायँ। जिसका देखना भी अनृत (पापमय) है, वही यह परम दुष्टात्मा कीचक रानी सुदेष्णा के उक्त मनोभाव को जानकर सदा स्वयं आकर मेरे आगे पार्थना किया करता है।  भीम!  पहले-पहल उसके ऐसा कहने पर में कुपित हो उठी; किंतु पुनः क्रोध के वेग को रोककर बोली- ‘कीचक!  तू काम से मोहित हो रहा है। अरे!  तू अपने आपकी रक्षा कर।  ‘मैं पाँच गन्धर्वों की पत्नी तथा प्यारी रानी हूँ। वे साहसी तथा शूरवीर गन्धर्व तुम्हें कुपित होकर मार डालेंगे’। मेरे ऐसा कहने पर महा दुष्टात्मा कीचक ने उत्तर दिया- ‘पवित्र मुसकान वाली सैरन्ध्री!  मैं गन्धर्वों से नहीं डरता।  
  
 
‘भीरु!  यदि मेरे सामने एक करोड़ गन्धर्व भी आ जायँ, तो मैं उन्हें मार डालूँगा; परंतु तुम मुझे स्वीकार कर लो’। उसके इस प्रकार उत्तर देने पर मैंने पुनः उस कामातुर और मतवाले कीचक से कहा- ‘कीचक!  तू मेरे यशस्वी पति गन्धर्वों के समान बलवान् नहीं है। ‘मैं सदा पातिव्रत्य-धर्म में स्थिर रहती हूँ एवं अपने उत्तम कुल की मर्यादा और सदाचार से सम्पन्न हूँ। मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण किसी का वध हो, इसीलिये तू अब तक जीवित है’। मेरी यह बात सुनकर वह दुष्टात्मा ठहाका मारकर हँसने लगा। तदनन्तर केकयराजकुमारी सुदेष्णा, जैसा कीचक ने पहले उसे सिखा रक्खा था, उसी योजना के अनुसार अपने भाई का प्रिय करने की इच्छा से मुझे प्रेमपूर्वक कीचक के यहाँ भेजने लगी और बोली- ‘कल्याणि!  तुम कीचक के महल से मेरे लिये मदिरा ले आओ’।  
 
‘भीरु!  यदि मेरे सामने एक करोड़ गन्धर्व भी आ जायँ, तो मैं उन्हें मार डालूँगा; परंतु तुम मुझे स्वीकार कर लो’। उसके इस प्रकार उत्तर देने पर मैंने पुनः उस कामातुर और मतवाले कीचक से कहा- ‘कीचक!  तू मेरे यशस्वी पति गन्धर्वों के समान बलवान् नहीं है। ‘मैं सदा पातिव्रत्य-धर्म में स्थिर रहती हूँ एवं अपने उत्तम कुल की मर्यादा और सदाचार से सम्पन्न हूँ। मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण किसी का वध हो, इसीलिये तू अब तक जीवित है’। मेरी यह बात सुनकर वह दुष्टात्मा ठहाका मारकर हँसने लगा। तदनन्तर केकयराजकुमारी सुदेष्णा, जैसा कीचक ने पहले उसे सिखा रक्खा था, उसी योजना के अनुसार अपने भाई का प्रिय करने की इच्छा से मुझे प्रेमपूर्वक कीचक के यहाँ भेजने लगी और बोली- ‘कल्याणि!  तुम कीचक के महल से मेरे लिये मदिरा ले आओ’।  

02:28, 23 नवम्बर 2016 का अवतरण

एकविंश (21) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)

Prev.png

महाभारत: विराट पर्व एकविंश अध्याय श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद

अब तुम थोड़े दिनों तक और ठहर जाओ। वर्ष पूरा होने में महीना- आध-महीना रह गया है। तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होते ही तुम राजरानी बनोगी। देवि! मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ, ऐसा ही होगा; यह टल नहीं सकता। तुम्हें सभी श्रेष्ठ स्त्रियों के समक्ष अपना आदर्श उपस्थित करना चाहिये।। भामिनी! तुम अपनी पतिभक्ति तथा सदाचार से सम्पूर्ण नरेशों के मस्तक पर स्थान प्राप्त करोगी और तुम्हें दुर्लभ भोग सुलभ होंगे।

द्रौपदी ने कहा- प्राणनाथ भीम! इधर अनेक प्रकार के दुःखों को सहन करने में असमर्थ एवं आर्त होकर ही मैंने ये आँसू बहाये हैं। मैं राजा युधिष्ठिर को उलाहना नीं दूँगी। महाबली भीमसेन! अब बीती बातों को दुहराने से क्या लाभ ? इस समय जिसका अवसर उपस्थित है, उस कार्य के लिये तैयार हो जाओ। भीम! केकयराजकुमारी सुदेष्णा यहाँ मेरे रूप से पराजित होने के कारण सदा इस शंका से उद्विग्न रहती हैं कि राजा विराट किसी प्रकार इस पर आसक्त न हो जायँ। जिसका देखना भी अनृत (पापमय) है, वही यह परम दुष्टात्मा कीचक रानी सुदेष्णा के उक्त मनोभाव को जानकर सदा स्वयं आकर मेरे आगे पार्थना किया करता है। भीम! पहले-पहल उसके ऐसा कहने पर में कुपित हो उठी; किंतु पुनः क्रोध के वेग को रोककर बोली- ‘कीचक! तू काम से मोहित हो रहा है। अरे! तू अपने आपकी रक्षा कर। ‘मैं पाँच गन्धर्वों की पत्नी तथा प्यारी रानी हूँ। वे साहसी तथा शूरवीर गन्धर्व तुम्हें कुपित होकर मार डालेंगे’। मेरे ऐसा कहने पर महा दुष्टात्मा कीचक ने उत्तर दिया- ‘पवित्र मुसकान वाली सैरन्ध्री! मैं गन्धर्वों से नहीं डरता।

‘भीरु! यदि मेरे सामने एक करोड़ गन्धर्व भी आ जायँ, तो मैं उन्हें मार डालूँगा; परंतु तुम मुझे स्वीकार कर लो’। उसके इस प्रकार उत्तर देने पर मैंने पुनः उस कामातुर और मतवाले कीचक से कहा- ‘कीचक! तू मेरे यशस्वी पति गन्धर्वों के समान बलवान् नहीं है। ‘मैं सदा पातिव्रत्य-धर्म में स्थिर रहती हूँ एवं अपने उत्तम कुल की मर्यादा और सदाचार से सम्पन्न हूँ। मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण किसी का वध हो, इसीलिये तू अब तक जीवित है’। मेरी यह बात सुनकर वह दुष्टात्मा ठहाका मारकर हँसने लगा। तदनन्तर केकयराजकुमारी सुदेष्णा, जैसा कीचक ने पहले उसे सिखा रक्खा था, उसी योजना के अनुसार अपने भाई का प्रिय करने की इच्छा से मुझे प्रेमपूर्वक कीचक के यहाँ भेजने लगी और बोली- ‘कल्याणि! तुम कीचक के महल से मेरे लिये मदिरा ले आओ’।

मैं वहाँ गयी। सूतपुत्र ने मुझे देखकर पहले तो अपनी बात मान लेने के लिये बड़े-बड़े आश्वासनों के साथ समझाना आरम्भ किया; किंतु जब मैंने उसकी प्रार्थना ठुकरा दी, तब उसने क्रोधपूर्वक मेरे साथ बलात्कार करने का विचार किया। दुरात्मा कीचक के उस संकल्प को मैं जरन गयी और राजा की शरण में पहुँचने के लिये बडत्रे वेग से भागी। किंतु वहाँ भी दुष्टात्मा सूतपुत्र ने राजा के सामने मुझे पकड़ लिया और पृथ्वी पर गिराकर लात से मारा।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः