श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 683

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-11-12


हमें ऐसे एक व्यक्ति की ऐसी आसुरी मनोवृत्ति का निजी अनुभव है, जो मरणकाल तक अपने वैद्य से अनुनय-विनय करता रहा कि वह किसी तरह उसके जीवन की अवधि चार वर्ष बढ़ा दे, क्योंकि उसकी योजनाएँ तब भी अधूरी थीं। ऐसे मूर्ख लोग यह नहीं जानते कि वैद्य क्षणभर भी जीवन को नहीं बढ़ा सकता। जब मृत्यु का बुलावा आ जाता है, तो मनुष्य की इच्छा पर ध्यान नहीं दिया जाता। प्रकृति के नियम किसी को निश्चित अवधि के आगे क्षणभर भी भोग करने की अनुमति प्रदान नहीं करते।

आसुरी मनुष्य, जो ईश्वर या अपने अन्तर में स्थित परमात्मा में श्रद्धा नहीं रखता, केवल इन्द्रियतृप्ति के लिए सभी प्रकार के पापकर्म करता रहता है। वह नहीं जानता कि उसके हृदय के भीतर एक साक्षी बैठा है। परमात्मा प्रत्येक जीवात्मा के कार्यों को देखता रहता है। जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है कि एक वृक्ष में दो पक्षी बैठे हैं, एक पक्षी कर्म करता हुआ टहनियों में लगे सुख-दुख रूपी फलों को भोग रहा है और दूसरा उसका साक्षी है। लेकिन आसुरी मनुष्य को न तो वैदिकशास्त्र का ज्ञान है, न कोई श्रद्धा है। अतएव वह इन्द्रियभोग के लिए कुछ भी करने के लिए अपने को स्वतन्त्र मानता है, उसे परिणाम की परवाह नहीं रहती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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