श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 231

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
अध्याय 5 : श्लोक-2

श्रीभगवानुवाच
सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥[1]

भावार्थ

श्रीभगवान ने उत्तर दिया– मुक्ति में लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम हैं। किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है।

तात्पर्य

सकाम कर्म (इन्द्रियतृप्ति में लगाना) ही भवबन्धन का कारण है। जब तक मनुष्य शारीरिक सुख का स्तर बढ़ाने के उद्देश्य से कर्म करता रहता है तब तक वह विभिन्न प्रकार के शरीरों में देहान्तरण करते हुए भवबन्धन को बनाये रखता है। इसकी पुष्टि भागवत[2] में इस प्रकार हुई है-

नूनं प्रमत्तः कुरुते विकर्म यदिन्द्रियप्रीतय आपृणोति।
न साधु मन्ये यत आत्मनोऽयमसन्नपि क्लेशद आस देहः॥

पराभवस्तावदबोधजातो यावन्न जिज्ञासत आत्मतत्त्वम्।
यावत्क्रियास्तावदिदं मनो वै कर्मात्मकं येन शरीरबन्धः॥

एवं मनः कर्मवशं प्रयुंक्ते अविद्ययात्मन्युपधीयमाने।
प्रीतिर्न यावन्मयि वासुदेवे न मुच्यते देह योगेन तावत्॥

“लोग इन्द्रियतृप्ति के पीछे मत्त हैं। वे यह नहीं जानते कि उनका क्लेशों से युक्त यह शरीर उनके विगत सकाम-कर्मों का फल है। यद्यपि यह शरीर नाशवान है, किन्तु यह नाना प्रकार के कष्ट देता रहता है। अतः इन्द्रिय तृप्ति के लिए कर्म करना श्रेयस्कर नहीं है। जब तक मनुष्य अपने असली स्वरूप के विषय में जिज्ञासा नहीं करता, उसका जीवन व्यर्थ रहता है। और जब तक वह अपने स्वरूप को नहीं जान लेता तब तक उसे इन्द्रिय तृप्ति के लिए सकाम कर्म करना पड़ता है, और जब तक वह इन्द्रिय तृप्ति की इस चेतना में फँसा रहता है तब तक उसका देहान्तरण होता रहता है। भले ही उसका मन सकाम कर्मों में व्यस्त रहे और अज्ञान द्वारा प्रभावित हो, किन्तु उसे वासुदेव की भक्ति के प्रति प्रेम उत्पन्न करना चाहिए। केवल तभी वह भव बन्धन से छूटने का अवसर प्राप्त कर सकता है।”

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री-भगवान् उवाच – श्रीभगवान् ने कहा; संन्यास – कर्म का परित्याग; कर्मयोगः – निष्ठायुक्त कर्म; च – भी; निःश्रेयस-करो – मुक्तिपथ को ले जाने वाले; उभौ – दोनों; तयोः – दोनों में से; तु – लेकिन; कर्म-संन्यासात् – सकामकर्मों के त्याग से; कर्म-योगः – निष्ठायुक्त कर्म; विशिष्यते – श्रेष्ठ है।
  2. भागवत 5.5.4-6

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