श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 179

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-4

अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परम विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥[1]

भावार्थ

अर्जुन ने कहा– सूर्यदेव विवस्वान् आप से पहले हो चुके (ज्येष्ठ) हैं, तो फिर मैं कैसे समझूँ कि प्रारम्भ में भी आपने उन्हें इस विद्या का उपदेश दिया था।

तात्पर्य

जब अर्जुन भगवान के माने हुए भक्त हैं तो फिर उन्हें कृष्ण के वचनों पर विश्वास क्यों नहीं हो रहा था? तथ्य यह है कि अर्जुन यह जिज्ञासा अपने लिए नहीं कर रहा है, अपितु यह जिज्ञासा उन सबों के लिए है, जो भगवान में विश्वास नहीं करते, अथवा उन असुरों के लिए है, जिन्हें यह विचार पसंद नहीं है कि कृष्ण को भगवान माना जाये उन्हीं के लिए अर्जुन यह बात इस तरह पूछ रहा है, मानो वह स्वयं भगवान या कृष्ण से अवगत न हो। जैसा कि दसवें अध्याय में स्पष्ट हो जायेगा, अर्जुन भलीभाँति जानता था कि कृष्ण श्रीभगवान हैं और वे प्रत्येक वस्तु के मूलस्त्रोत हैं तथा ब्रह्म की चरम सीमा हैं। निस्सन्देह, कृष्ण इस पृथ्वी पर देवकी के पुत्र रूप में भी अवतीर्ण हुए। सामान्य व्यक्ति के लिए यह समझ पाना अत्यन्त कठिन है कि कृष्ण किस प्रकार उसी शाश्वत आदि पुरुष श्रीभगवान के रूप में बने रहे। अतः इस बात को स्पष्ट करने के लिए ही अर्जुन ने कृष्ण से यह प्रश्न पूछा, जिससे वे ही प्रामाणिक रूप में बताएँ। कृष्ण परम प्रमाण हैं, यह तथ्य आज ही नहीं अनन्तकाल से सारे विश्व द्वारा स्वीकार किया जाता रहा है। केवल असुर ही इसे अस्वीकार करते रहे हैं। जो भी हो, चूँकि कृष्ण सर्वस्वीकृत परम प्रमाण हैं, अतः अर्जुन उन्हीं से प्रश्न करता है, जिससे कृष्ण स्वयं बताएँ और असुर तथा उनके अनुयायी जिस भाँति अपने लिए तोड़-मरोड़ करके उन्हें प्रस्तुत करते रहे हैं, उससे बचा जा सके। यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि अपने कल्याण के लिए वह कृष्णविद्या को जाने। अतः जब कृष्ण स्वयं अपने विषय में बोल रहे हों तो यह सारे विश्व के लिए शुभ है। कृष्ण द्वारा की गई ऐसी व्याख्याएँ असुरों को भले ही विचित्र लगें, क्योंकि वे अपने ही दृष्टिकोण से कृष्ण का अध्ययन करते हैं, किन्तु जो भक्त हैं वे साक्षात् कृष्ण द्वारा उच्चरित वचनों का हृदय से स्वागत करते हैं। भक्तगण कृष्ण के ऐसे प्रामाणिक वचनों की सदा पूजा करेंगे, क्योंकि वे लोग उनके विषय में अधिकाधिक जानने के लिए उत्सुक रहते हैं। इस तरह नास्तिकगण जो कृष्ण को सामान्य व्यक्ति मानते हैं वे भी कृष्ण को अतिमानव, सच्चिदानन्द विग्रह, दिव्य, त्रिगुणातीत तथा दिक्काल के प्रभाव से परे समझ सकेंगे। अर्जुन की कोटि के श्रीकृष्ण-भक्त को कभी भी श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूप के विषय में कोई भ्रम नही हो सकता। अर्जुन द्वारा भगवान के समक्ष ऐसा प्रश्न उपस्थित करने का उद्देश्य उन व्यक्तियों की नस्तिक्तावादी प्रवृत्ति को चुनौती देना था, जो कृष्ण को भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन एक समान्य व्यक्ति मानते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; अपरम् – अर्वाचीन, कनिष्ठ; भवतः – आपका; जन्म – जन्म; परम् – श्रेष्ठ (ज्येष्ठ); जन्म – जन्म; विवस्वतः – सूर्यदेव का; कथम् – कैसे; एतत् – यः; विजानीयाम् – मैं समझूँ; तवम् – तुमने; आदौ – प्रारम्भ में; प्रोक्तवान् – उपदेश दिया; इति – इस प्रकार।

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