श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 404

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-17


पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च।।[1]

भावार्थ

मैं इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह हूँ। मैं ज्ञेय (जानने योग्य), शुद्धिकर्ता तथा ओंकार हूँ। मैं ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी हूँ।

तात्पर्य

सारे चराचर विराट जगत की अभिव्यक्ति कृष्ण की शक्ति के विभिन्न कार्यकलापों से होती है। इस भौतिक जगत में हम विभिन्न जीवों के साथ तरह-तरह के सम्बन्ध स्थापित करते हैं, जो कृष्ण की शक्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हैं। प्रकृति की सृष्टि में उनमें से कुछ हमारे माता, पिता के रूप में उत्पन्न होते हैं वे कृष्ण के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। इस श्लोक में आए धाता शब्द का अर्थ स्रष्टा है। न केवल हमारे माता पिता कृष्ण के अंश रूप हैं, अपितु इनके स्रष्टा दादी तथा दादा कृष्ण हैं। वस्तुतः कोई भी जीव कृष्ण का अंश होने के कारण कृष्ण है। अतः सारे वेदों के लक्ष्य कृष्ण ही हैं। हम वेदों से जो भी जानना चाहते हैं वह कृष्ण को जानने की दिशा में होता है। जिस विषय से हमारी स्वाभाविक स्थिति शुद्ध होती है, वह कृष्ण है। इसी प्रकार जो जीव वैदिक नियमों को जानने के लिए जिज्ञासु रहता है, वह भी कृष्ण का अंश, अतः कृष्ण भी है। समस्त वैदिक मन्त्रों में ॐ शब्द, जिसे प्रणव कहा जाता है, एक दिव्य ध्वनि-कम्पन है और यह कृष्ण भी है। चूँकि चारों वेदों–ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद में प्रणव या ओंकार प्रधान है, अतः इसे कृष्ण समझना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पिता–पिता; अहम्–मैं; अस्य–इस; जगतः–ब्रह्माण्ड का; माता–माता; धाता–आश्रयदाता; पितामहः–बाबा; वेद्यम्–जानने योग्य; पवित्रम्–शुद्ध करने वाला; ॐकारः–ॐ अक्षर; ऋक्–ऋग्वेद; साम–सामवेद; यजुः–यजुर्वेद; एव–निश्चय ही; च–तथा।

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