श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 464

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-33


अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः॥[1]

भावार्थ

अक्षरों में मैं अकार हूँ और समासों में द्वन्द्व समास हूँ। मैं शाश्वत काल भी हूँ और स्रष्टाओं में ब्रह्मा हूँ।

तात्पर्य

अ-कार अर्थात संस्कृत अक्षर माला का प्रथम अक्षर (अ) वैदिक साहित्य का शुभारम्भ है। अकार के बिना कोई स्वर नहीं हो सकता, इसीलिए यह आदि स्वर है। संस्कृत में कई तरह के सामसिक शब्द होते हैं, जिनमें से राम-कृष्ण जैसे दोहरे शब्द द्वन्द्व कहलाते हैं। इस समास में राम तथा कृष्ण अपने उसी रूप में हैं, अतः यह समास द्वन्द्व कहलाता है।

समस्त मारने वालों में काल सर्वोपरि है, क्योंकि वह सबों को मारता है। काल कृष्णस्वरूप है, क्योंकि समय आने पर प्रलयाग्नि से सब कुछ लय हो जाएगा।

सृजन करने काले जीवों में ब्रह्मा प्रधान हैं, अतः वे भगवान कृष्ण के प्रतिक हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अक्षराणाम्-अक्षरों में; अ-कारः-अकार अर्थात पहला अक्षर; अस्मि-हूँ; द्वन्द्वः-द्वन्द्व समास; सामासिकस्य-सामसिक शब्दों में; च-तथा; अहम्-मैं हूँ; एव-निश्चय ही; अक्षयः-शाश्वत; कालः-काल, समय; धाता-स्रष्टा; अहम्-मैं; विश्वतः-मुखः-ब्रह्मा।

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