श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 781

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-49


असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह: ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ॥49॥[1]

भावार्थ

जो आत्मसंयमी तथा अनासक्त है एवं जो समस्त भौतिक भोगों की परवाह नहीं करता, वह संन्यास के अभ्यास द्वारा कर्मफल से मुक्ति की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर सकता है।

तात्पर्य

सच्चे संन्यास का अर्थ है कि मनुष्य सदा अपने को परमेश्वर का अंश मानकर यह सोचे कि उसे अपने कार्य के फल को भोगने का कोई अधिकार नहीं है। चूँकि वह परमेश्वर का अंश है, अतएव उसके कार्य का फल परमेश्वर द्वारा भोगा जाना चाहिए, यही वास्तव में कृष्णभावनामृत है। जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में स्थित होकर कर्म करता है, वही वास्तव में संन्यासी है। ऐसी मनोवृत्ति होने से मनुष्य सन्तुष्ट रहता है क्योंकि वह वास्तव में भगवान् के लिए कार्य कर रहा होता है। इस प्रकार वह किसी भी भौतिक वस्तु के लिए आसक्त नहीं होता, वह भगवान की सेवा से प्राप्त दिव्य सुख से परे किसी भी वस्तु में आनन्द न लेने का आदी हो जाता है। संन्यासी को पूर्व कार्यकलापों के बन्धन से मुक्त माना जाता है, लेकिन जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में होता है वह बिना संन्यास ग्रहण किये ही यह सिद्धि प्राप्त कर लेता है। यह मनोदशा योगारूढ़ या योग की सिद्धावस्था कहलाती है। जैसा कि तृतीय अध्याय में पुष्टि हुई है- यस्त्वात्मरतिरेव स्यात्- जो व्यक्ति अपने में संतुष्ट रहता है, उसे अपने कर्म से किसी प्रकार के बन्धन का भय नहीं रह जाता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. असक्त-बुद्धिः= आसक्ति रहित बुद्धि वाला; सर्वत्र= सभी जगह; जित-आत्मा= मन के ऊपर संयम रखने वाला; विगत-स्पृहः= भौतिक इच्छाओं से रहित; नैष्‍कम्‍य-सिद्धिम्= निष्कर्म की सिद्धि; परमाम्= परम; संन्यासेन= संन्यास के द्वारा; अधिगच्छति= प्राप्त करता है।

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