श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 621

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति के तीन गुण
अध्याय 14 : श्लोक-16


कर्मण: सुकृतस्याहु: सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तुफलं दु:खमज्ञानं तमस:फलम् ॥16॥[1]

भावार्थ

पुण्यकर्म का फल शुद्ध होता है और सात्त्विक कहलाता है। लेकिन रजोगुण में सम्पन्न कर्म का फल दुख होता है और तमोगुण में किये गये कर्म मूर्खता में प्रतिफलित होते हैं।

तात्पर्य

सतोगुण में किये गये पुण्यकर्मों का फल शुद्ध होता है, अतएव वे मुनिगण, जो समस्त मोह से मुक्त हैं, सुखी रहते हैं। लेकिन रजोगुण में किये गये कर्म दुख के कारण बनते हैं। भौतिक सुख के लिए जो भी कार्य किया जाता है, उसका विफल होना निश्चित है। उदाहरणार्थ, यदि कोई गगनचुम्बी प्रासाद बनवाना चाहता है, तो उसके बनने के पूर्व अत्यधिक कष्ट उठाना पड़ता है। मालिक को धन-संग्रह के लिए कष्ट उठाना पड़ता है और प्रासाद बनाने वाले श्रमियों को शारीरिक श्रम करना होता है। इस प्रकार कष्ट तो होते ही हैं। अतएव भगवद्गीता का कथन है कि रजोगुण के अधीन होकर जो भी कर्म किया जाता है, उसमें निश्चित रूप से महान कष्ट भोगने होते हैं। इससे यह मानसिक तुष्टि हो सकती है कि मैंने यह मकान बनवाया या इतना धन कमाया, लेकिन यह कोई वास्तविक सुख नहीं है। जहाँ तक तमोगुण का सम्बन्ध है, कर्ता को कुछ ज्ञान नहीं रहता, अतएव उसके समस्त कार्य उस समय दुखदायक होते हैं और बाद में उसे पशु जीवन में जाना होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कर्मणः= कर्म का; सु= कृतस्य= पुण्य; आहुः= कहा गया है; सात्त्विकम्= सात्त्विक; निर्मलम्= विशुद्ध; फलम्= फल; रजसः= रजोगुण का; तु= लेकिन; फलम्= फल; दुःखम्= दुख; अज्ञानम्= व्यर्थ; तमसः= तमोगुण का; फलम्= फल।

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