श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 650

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-11


यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतस: ॥11॥[1]

भावार्थ

आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त प्रयत्नशील योगीजन यह सब स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। लेकिन जिनके मन विकसित नहीं हैं और जो आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त नहीं हैं, वे प्रयत्न करके भी यह नहीं देख पाते कि क्या हो रहा है।

तात्पर्य

अनेक योगी आत्म-साक्षात्कार के पथ पर होते हैं, लेकिन जो आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त नहीं है, वह यह नहीं देख पाता कि जीव के शरीर में कैसे-कैसे परिवर्तन हो रहे हैं। इस प्रसंग मे योगिनः शब्द महत्त्वपूर्ण है। आजकल ऐसे अनेक तथाकथित योगी हैं और योगियों के तथाकथित संगठन हैं, लेकिन आत्म-साक्षात्कार के मामले में वे शून्य हैं। वे केवल कुछ आसनों में व्यस्त रहते हैं और यदि उनका शरीर सुगठित तथा स्वस्थ हो गया, तो वे सन्तुष्ट हो जाते हैं। उन्हें इसके अतिरिक्त कोई जानकारी नहीं रहती। वे यतन्तोऽप्यकृतात्मानः कहलाते हैं। यद्यपि वे तथाकथित योगपद्धति का प्रयास करते हैं, लेकिन वे स्वरूपसिद्ध नहीं हो पाते। ऐसे व्यक्ति आत्मा के देहान्तरण को नहीं समझ सकते। केवल वे ही ये सभी बातें समझ पाते हैं, जो सचमुच योग पद्धति में रमते हैं और जिन्हें आत्मा, जगत तथा परमेश्वर की अनुभूति हो चुकी है। दूसरे शब्दों में, जो भक्तियोगी हैं वे ही समझ सकते हैं कि किस प्रकार से सब कुछ घटित होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यतन्तः= प्रयास करते हुए; योगिनः= अध्यात्मवादी, योगी; च= भी; एनम्= इसे; पश्यन्ति= देख सकते हैं; आत्मनि= अपने में; अवस्थितम्= स्थित; यतन्तः= प्रयास करते हुए; अपि= यद्यपि; अकृत-आत्मानः= आत्म= साक्षात्कार से विहीन; न= नहीं; एनम्= इसे; पश्यन्ति= देखते हैं; अचेतसः= अविकसित मनों वाले, अज्ञानी।

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