श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 820

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-77


तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे: ।
विस्मयो मे महाराजन्हृष्यामि च पुन: पुन: ॥77॥[1]

भावार्थ

हे राजन! भगवान कृष्ण के अद्भुत रूप का स्मरण करते ही मैं अधिकाधिक आश्चर्यचकित होता हूँ और पुनः पुनः हर्षित होता हूँ।

तात्पर्य

ऐसा प्रतीत होता है कि व्यास की कृपा से संजय ने भी अर्जुन को दिखाये गये कृष्ण के विराटरूप को देखा था। निस्सन्देह यह कहा जाता है कि इसके पूर्व भगवान कृष्ण ने कभी ऐसा रूप प्रकट नहीं किया था। यह केवल अर्जुन को दिखाया गया था, लेकिन उस समय कुछ महान भक्त भी उसे देख सके थे तथा व्यास उनमें से एक थे। वे भगवान के परम भक्तों में से हैं और कृष्ण के शक्त्यावेश अवतार माने जाते हैं। व्यास ने इसे अपने शिष्य संजय के समक्ष प्रकट किया जिन्होंने अर्जुन को प्रदर्शित किये गये कृष्ण के उस अद्भुत रूप को स्मरण रखा और वे बारम्बार उसका आनन्द उठा रहे थे।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तत्= उस; च= भी; संस्मृत्य= स्मरण करके; संस्मृत्य= स्मरण करके; रूपम्= स्वरूप को; अति= अत्यधिक; अद्धभुतम्= अद्भुत; हरेः= भगवान् कृष्ण के; विस्मयः= आश्चर्य; मे= मेरा; महान= महान; राजन्= हे राजा; हृष्यामि= हर्षित हो रहा हूँ; च= भी; पुनःपुनः= फिर-फिर, बारम्बार।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः