श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 510

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-45

अदृष्टपूर्वं हृषितोSस्मि दृष्ट्वा
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देव रूपं
प्रसीद देवेश जगन्निवास॥[1]

भावार्थ

पहले कभी न देखे गये आपके विराट रूप का दर्शन करके मैं पुलकित हो रहा हूँ, किन्तु साथ ही मेरा मन भयभीत हो रहा है। अतः आप मुझ पर कृपा करें और हे देवेश, हे जगन्निवास! अपना पुरुषोत्तम भगवत् स्वरूप पुनः दिखाएँ ।

तात्पर्य

अर्जुन को कृष्ण का विश्वास है, क्योंकि वह उनका प्रिय मित्र है और मित्र रूप में वह अपने मित्र के ऐश्वर्य को देखकर अत्यन्त पुलकित है। अर्जुन यह देख कर अत्यन्त प्रसन्न है कि उसके मित्र कृष्ण भगवान् हैं और वे ऐसा विराट रूप प्रदर्शित कर सकते हैं। किन्तु साथ ही वह यह विराट रूप को देखकर भयभीत है कि उसने अनन्य मैत्रीभाव के कारण कृष्ण के प्रति अनेक अपराध किये हैं। इस प्रकार भयवश उसका मन विचलित है, यद्यपि भयभीत होने का कोई कारण नहीं है। अतएव अर्जुन कृष्ण से प्रार्थना करता है कि वे अपने नारायण रूप दिखाएँ, क्योंकि वे कोई भी रूप धारण कर सकते हैं। यह विराट रूप भौतिक जगत के ही तुल्य भौतिक एवं नश्वर है। किन्तु वैकुण्ठलोक में नारायण के रूप में उनका शाश्वत चतुर्भुज रूप रहता है। वैकुण्ठलोक में असंख्य लोक है और कृष्ण इन सबमें अपने भिन्न नामों से अंश रूप में विद्यमान हैं। इस प्रकार अर्जुन वैकुण्ठलोक के उनके किसी एक रूप को देखना चाहता था। निस्सन्देह वैकुण्ठलोक में नारायण का स्वरूप चतुर्भुजी है, किन्तु इन चारों हाथों में वे विभिन्न क्रम में शंख, गदा, कमल तथा चक्र चिह्न धारण किये रहते हैं। विभिन्न हाथों में इन चारों चिह्नों के अनुसार नारायण भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाते हैं। ये सारे रूप कृष्ण के ही हैं, इसलिए अर्जुन कृष्ण के चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता था ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अदृष्ट-पूर्वम् - पहले कभी न देखा गया; हृषितः - हर्षित; अस्मि - हूँ; दृष्ट्वा - देखकर; भयेन - भय के कारण; च - भी; प्रव्यथितम् - विचलित, भयभीत; मनः - मन; मे - मेरा; तत् - वह; एव - निश्चय ही; मे - मुझको; दर्शय - दिखलाइये; देव - हे प्रभु; रूपम् - रूप; प्रसीद - प्रसन्न होइये; देव-ईश - ईशों के ईश; जगत्-निवास - हे जगत के आश्रय।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः