श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 589

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-23


उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर: ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुष: पर: ॥23॥[1]

भावार्थ

तो भी इस शरीर में एक अन्य दिव्य भोक्ता है, जो ईश्वर है, परम स्वामी है और साक्षी तथा अनुमति देने वाले के रूप में विद्यमान है और जो परमात्मा कहलाता है।

तात्पर्य

यहाँ पर कहा गया है कि जीवात्मा के साथ निरन्तर रहने वाला परमात्मा परमेश्वर का प्रतिनिधि है। वह सामान्य जीव नहीं है। चूँकि अद्वैतवादी चिन्तक शरीर के ज्ञाता को एक मानते हैं, अतएव उनके विचार से परमात्मा तथा जीवात्मा में कोई अन्तर नहीं है। इसका स्पष्टीकारण करने के लिए भगवान् कहते हैं कि वे प्रत्येक शरीर में परमात्मा-रूप में विद्यमान हैं। वे जीवात्मा से भिन्न हैं, वे पर हैं, दिव्य हैं। जीवात्मा किसी विशेष क्षेत्र के कार्यों को भोगता है, लेकिन परमात्मा किसी सीमित भोक्ता के रूप में या शरीरिक कर्मों में भाग लेने वाले के रूप में विद्यमान नहीं रहता, अपितु वह साक्षी, अनुमतिदाता तथा परम भोक्ता के रूप में स्थित रहता है। उसका नाम परमात्मा है, आत्मा नहीं। वह दिव्य है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उपद्रष्टा= साक्षी; अनुमन्ता= अनुमति देने वाला, च= भी; भर्ता= स्वामी; भोक्ता= परम भोक्ता; महा-ईश्वरः= परमेश्वर; परम-आत्मा= परमात्मा; इति= भी; च= तथा; अपि= निस्सन्देह; उक्तः= कहा गया है; देहे= शरीर में; अस्मिन्= इस; पुरुषः= भोक्ता; परः= दिव्य।

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