श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 435

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-7


एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकल्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।[1]

भावार्थ

जो मेरे इस ऐश्वर्य तथा योग से पूर्णतया आश्वस्त है, वह मेरी अनन्य भक्ति में तत्पर होता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

तात्पर्य

आध्यात्मिक सिद्धि की चरम परिणिति है, भगवदज्ञान। जब तक कोई भगवान के विभिन्न ऐश्वर्यों के प्रति आश्वस्त नहीं हो लेता, तब तक भक्ति में नहीं लग सकता। सामान्यतया लोग इतना तो जानता हैं कि ईश्वर महान है, किन्तु यह नहीं जानते कि वह किस प्रकार महान है। यहाँ पर इसका विस्तृत विवरण दिया गया है। जब कोई यह जान लेता है कि ईश्वर कैसे महान है, तो वह सहज ही शरणागत होकर भगवद्भक्ति में लग जाता है। भगवान के ऐश्वर्यों को ठीक से समझ लेने पर शरणागत होने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं रह जाता। ऐसा वास्तविक ज्ञान भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत तथा अन्य ऐसे ही ग्रंथों से प्राप्त किया जा सकता है।

इस ब्रह्माण्ड के संचालन के लिए विभिन्न लोकों में अनेक देवता नियुक्त हैं, जिनमें से ब्रह्मा, शिव, चारों कुमार तथा अन्य प्रजापति प्रमुख हैं। ब्रह्माण्ड की प्रजा के अनेक पितामह भी हैं और वे सब भगवान कृष्ण से उत्पन्न हैं। भगवान कृष्ण समस्त पितामहों के आदि पितामह हैं।

ये रहे परमेश्वर के कुछ ऐश्वर्य। जब मनुष्य को इन पर अटूट विश्वास हो जाता है, तो वह अत्यन्त श्रद्धा समेत तथा संशयरहित होकर कृष्ण को स्वीकार करता है और भक्ति करता है। भगवान की प्रेमाभक्ति में रुचि बढ़ाने के लिए ही इस विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता है। कृष्ण की महानता को समझने में अपेक्षा भाव न बरते, क्योंकि कृष्ण की महानता को जानने पर ही एकनिष्ट होकर भक्ति की जा सकती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एताम्–इस सारे; विभूतिम्–ऐश्वर्य को; योगम्–योग को; च–भी; मम–मेरा; यः–जो कोई; वेत्ति–जानता है; तत्त्वतः–सही-सही; सः–वह; अविकल्पेन–निश्चित रूप से; योग्येन–भक्ति से; युज्यते–लगा रहता है; न–कभी नहीं; अत्र–यहाँ; संशयः–सन्देह, शंका।

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