श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 44

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-8

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥[1]

भावार्थ

मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके। स्वर्ग पर देवताओं के आधिपत्य की तरह इस धनधान्य-सम्पन्न सारी पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य प्राप्त करके भी मैं इस शोक को दूर नहीं कर सकूँगा।

तात्पर्य

यद्यपि अर्जुन धर्म तथा सदाचार के नियमों पर आधारित अनेक तर्क प्रस्तुत करता है, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने गुरु भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता के बिना अपनी असली समस्या को हल नहीं कर पा रहा। वह समझ गया था, कि उसका तथा कथित ज्ञान उसकी उन समस्याओं को दूर करने में व्यर्थ है, जो उसके सारे अस्तित्व (शरीर) को सुखाये दे रही थीं। उसे इन उलझनों को भगवान् कृष्ण जैसे आध्यात्मिक गुरु की सहायता के बिना हल कर पाना असम्भव लग रहा था। शैक्षिक ज्ञान, विद्वत्ता, उच्च पद – ये सब जीवन की समस्याओं का हल करने में व्यर्थ हैं। यदि कोई इसमें सहायता कर सकता है, तो वह है, एकमात्र गुरु। अतः निष्कर्ष यह निकला कि गुरु जो शत-प्रतिशत कृष्णभावनाभावित होता है, वही एकमात्र प्रमाणिक गुरु है और वही जीवन की समस्याओं को हल कर सकता है। भगवान् चैतन्य ने कहा है कि जो कृष्णभावनामृत के विज्ञान में दक्ष हो, कृष्णतत्त्ववेत्ता हो, चाहे वह जिस किसी जाति का हो, वही वास्तविक गुरु है–

किबा विप्र, किबा न्यासी, शुद्र केने नय।
येइ कृष्णतत्त्ववेत्ता, सेइ ‘गुरु’ हय॥

“कोई व्यक्ति चाहे वह विप्र (वैदिक ज्ञान में दक्ष) हो, निम्न जाति में जन्मा शुद्र हो या कि संन्यासी, यदि कृष्ण के विज्ञान में दक्ष (कृष्णतत्त्ववेत्ता) है तो वह यथार्थ प्रामाणिक गुरु है।” [2] अतः कृष्णतत्त्ववेत्ता हुए बिना कोई भी प्रामाणिक गुरु नहीं हो सकता।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न – नहीं; हि – निश्चय ही; प्रपश्यामि – देखता हूँ; मम – मेरा; अपनुद्यात् – दूर कर सके; यत् – जो; शोकम् – शोक; उच्छोषणम् – सुखाने वाला; इन्द्रियाणाम् – इन्द्रियों को; अवाप्य – प्राप्त करके; भूमौ – पृथ्वी पर; असपत्नम् – शत्रुविहीन; ऋद्धम् – समृद्ध; राज्यम् – राज्य; सुराणाम् – देवताओं का; अपि – चाहे; च – भी; आधिपत्यम् – सर्वोच्चता।
  2. चैतन्य-चरितामृत, मध्य 8.128

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः