श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 240

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
अध्याय 5 : श्लोक-11

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मश्रुद्धये॥[1]

भावार्थ

योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।

तात्पर्य

जब कोई कृष्णभावनामृत में कृष्ण की इन्द्रियतृप्ति के लिए शरीर, मन, बुद्धि अथवा इन्द्रियों द्वारा कर्म करता है तो वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के कार्यों से कोई भौतिक फल प्रकट नहीं होता। अतः सामान्य रूप से सदाचार कहे जाने वाले शुद्ध कर्म कृष्णभावनामृत में रहते हुए सरलता से सम्पन्न किये जा सकते है। श्रील रूप गोस्वामी में भक्तिरसामृत सिन्धु में[2] इसका वर्णन इस प्रकार किया है–

ईहा यस्य हरेर्दास्ये कर्मणा मनसा गिरा।
निखिलास्वप्यवस्थासु जीवन्मुक्तः स उच्यते॥

“अपने शरीर, मन, बुद्धि तथा वाणी से कृष्णभावनामृत में कर्म करता हुआ (कृष्ण सेवा में) व्यक्ति इस संसार में भी मुक्त रहता है, भले ही वह तथा कथित अनेक भौतिक कार्यकलापों में व्यस्त क्यों न रहे।” उसमें अहंकार नहीं रहता क्योंकि वह इसमें विश्वास नहीं रखता कि वह भौतिक शरीर है अथवा यह शरीर उसका है। वह जानता है कि वह यह शरीर नहीं है और न यह शरीर ही उसका है। वह स्वयं कृष्ण का है और उसका यह शरीर भी कृष्ण की सम्पत्ति है। जब वह शरीर, मन , बुद्धि, वाणी, जीवन सम्पत्ति आदि से उत्पन्न प्रत्येक वस्तु को, जो भी उसके अधिकार में है, कृष्ण की सेवा में लगता है तो वह तुरंत कृष्ण से जुड़ जाता है। वह कृष्ण से एक रूप हो जाता है और उस अहंकार से रहित होता है जिसके कारन मनुष्य सोचता है कि मैं शरीर हूँ। यही कृष्णभावनामृत की पूर्णावस्था है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कायेन – शरीर से; मनसा – मन से; बद्धया – बुद्धि से; केवलैः – शुद्ध; इन्द्रियैः – इन्द्रियों से; अपि – भी; योगिनः – कृष्णभावनाभावित व्यक्ति; कर्म – कर्म; कुर्वन्ति – करते हैं; सङ्गं – आसक्ति; त्यक्त्वा – त्याग कर; आत्म- आत्मा की; शुद्धये – शुद्धि के लिए।
  2. 1.2.187

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