श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 782

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-50


सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥50॥[1]

भावार्थ

हे कुन्तीपुत्र! जिस तरह इस सिद्धि को प्राप्त हुआ व्यक्ति परम सिद्धावस्था अर्थात ब्रह्म को, जो सर्वोच्च ज्ञान की अवस्था है, प्राप्त करता है, उसका मैं संक्षेप में तुमसे वर्णन करूँगा, उसे तुम जानो।

तात्पर्य

भगवान अर्जुन को बताते हैं कि किस तरह कोई व्यक्ति केबल अपने वृत्तिपरक कार्य में लग कर परम सिद्धावस्था को प्राप्त कर सकता है, यदि यह कार्य भगवान के लिए किया गया हो। यदि मनुष्य अपने कर्म के फल को परमेश्वर की तुष्टि के लिए ही त्याग देता है, तो उसे ब्रह्म की चरम अवस्था प्राप्त हो जाती है। यह आत्म-साक्षात्कार की विधि है। ज्ञान की वास्तविक सिद्धि शुद्ध कृष्णभावनामृत प्राप्त करने में है, इसका वर्णन अगले श्लोकों में किया गया है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सिद्धिम्= सिद्धि को; प्राप्तः= प्राप्त किया हुआ; यथा= जिस तरह; ब्रह्म= परमेश्वर; तथा= उसी प्रकार; आप्नोति= प्राप्त करता है; निबोध= समझने का यत्न करो; मे= मुझसे; समासेन= संक्षेप में; एव= निश्चय ही; कौन्तेय= हे कुन्तीपुत्र; निष्ठा= अवस्था; ज्ञानस्य= ज्ञान की; या= जो; परा= दिव्य।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः