श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 794

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-59


यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥59॥[1]

भावार्थ

यदि तुम मेरे निर्देशानुसार कर्म नहीं करते और युद्ध में प्रवृत्त नहीं होते हो, तो तुम कुमार्ग पर जाओगे। तुम्हें अपने स्वभाववश युद्ध में लगना होगा।

तात्पर्य

अर्जुन एक सैनिक था और क्षत्रिय स्वभाव लेकर जन्मा था। अतएव उसका स्वाभाविक कर्तव्य था कि वह युद्ध करे। लेकिन मिथ्या अहंकारवश वह डर रहा था कि अपने गुरु, पितामह तथा मित्रों का वध करके वह पाप का भागी होगा। वास्तव में वह अपने को अपने कर्मों का स्वामी जान रहा था, मानो वही ऐसे कर्मों के अच्छे बुरे फलों का निर्देशन कर रहा हो। वह भूल गया कि वहाँ पर साक्षात् भगवान उपस्थित हैं और उसे युद्ध करने का आदेश दे रहे हैं। यही है बद्धजीव की विस्मृति। परमपुरुष निर्देश देते हैं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है और मनुष्य को जीवन-सिद्धि प्राप्त करने के लिए केवल कृष्णभावनामृत में कर्म करना है। कोई भी अपने भाग्य का निर्णय ऐसे नहीं कर सकता जैसे भगवान कर सकते हैं। अतएव सर्वोत्तम मार्ग यही है कि परमेश्वर से निर्देश प्राप्त करके कर्म किया जाय। भगवान या भगवान के प्रतिनिधि स्वरूप गुरु के आदेश की वह कभी भी उपेक्षा न करे। भगवान के आदेश को बिना किसी हिचक के पूरा करने के लिए वह कर्म करे-इससे सभी परिस्थितियों में सुरक्षित रहा जा सकेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यत्= यदि; अहंकारम्= मिथ्या अहंकार की; आश्रित्य= शरण लेकर; न योत्स्ये= मैं नहीं लडूँगा; इति= इस प्रकार; मन्यसे= तुम सोचते हो; मिथ्या एष= तो यह सब झूठ है; व्यवसायः= संकल्प; ते= तुम्हारा; प्रकृतिः= भौतिक प्रकृति; त्वाम्= तुमको; नियोक्ष्यति= लगा लेगी।

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