श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 419

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-30


अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।[1]

भावार्थ

यदि कोई जघन्य से जघन्य कर्म करता है, किन्तु यदि वह भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए, क्योंकि वह अपने संकल्प में अडिग रहता है।

तात्पर्य

इस श्लोक का सुदुराचारः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, अतः हमें इसे ठीक से समझना होगा। जब मनुष्य बद्ध रहता है तो उसके दो प्रकार के कर्म होते हैं– प्रथम बद्ध और द्वितीय स्वाभाविक। जिस प्रकार शरीर की रक्षा करने या समाज तथा राज्य के नियमों का पालन करने के लिए तरह-तरह के कर्म करने होते हैं, उसी प्रकार से बद्ध जीवन के प्रसंग में भक्तों के लिए कर्म होते हैं, जो बद्ध कहलाते हैं। इनके अतिरिक्त, जो जीव अपने अध्यात्मिक स्वभाव से पूर्णतया भिज्ञ रहता है और कृष्णभावनामृत में या भगवद्भक्ति में लगा रहता है, उसके लिए भी कर्म होते हैं, जो दिव्य कहलाते हैं। ऐसे कार्य उसकी स्वाभाविक स्थिति में सम्पन्न होते हैं और शास्त्रीय दृष्टि से भक्ति कहलाते हैं। बद्ध अवस्था में कभी-कभी भक्ति और शरीर की बद्ध सेवा एक दूसरे के समान्तर चलती हैं। किन्तु पुनः कभी-कभी वे एक दूसरे के विपरीत हो जाती हैं। जहाँ तक सम्भव होता है, भक्त सतर्क रहता है कि वह ऐसा कोई कार्य न करे, जिससे यह अनुकूल स्थिति भंग हो। वह जानता है कि उसकी कर्म-सिद्धि उसके कृष्णभावनामृत की अनुभूति की प्रगति पर निर्भर करती है। किन्तु कभी-कभी यह देखा जाता है कि कृष्णभावनामृत में रत व्यक्ति सामाजिक या राजनीतिक दृष्टि से निन्दनीय कार्य करता बैठता है। किन्तु इस प्रकार के क्षणिक पतन से वह अयोग्य नहीं हो जाता। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि यदि कोई पतित हो जाय, किन्तु यदि भगवान की दिव्य सेवा में लगा रहे तो हृदय में वास करने वाले भगवान उसे शुद्ध कर देते हैं और उस निन्दनीय कार्य के लिए क्षमा कर देते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अपि–भी; चेत्–यदि; सु-दुराचारः–अत्यन्त गर्हित कर्म करने वाला; भजते–सेवा करता है; माम्–मेरी; अनन्य-भाक्–बिना विचलित हुए; साधुः–साधु पुरुष; एव–निश्चय ही; सः–वह; मन्तव्यः–मानने योग्य; सम्यक्–पूर्णतया; व्यवसितः–संकल्प करना; हि–निश्चय ही; सः–वह।

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