श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-14
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढ़संकल्प के साथ प्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरन्तर मेरी पूजा करते हैं।
सामान्य पुरुष को रबर की मुहर लगाकर महात्मा नहीं बनाया जाता। यहाँ पर उसके लक्षणों का वर्णन किया गया है– महात्मा सदैव भगवान कृष्ण के गुणों का कीर्तन करता रहता है, उसके पास कोई दूसरा कार्य नहीं रहता। वह सदैव कृष्ण के गुण-गान में व्यस्त रहता है। दूसरे शब्दों में, वह निर्विशेष वादी नहीं होता। जब गुण-गान का प्रश्न उठे तो मनुष्य को चाहिए कि वह भगवान के पवित्र नाम,उनके नित्य रूप, उनके दिव्य गुणों तथा आसामान्य लीलाओं की प्रशंसा करते हुए परमेश्वर को महिमान्वित करे। उसे इन सारी वस्तुओं को महिमान्वित करना होता है, अतः महात्मा भगवान के प्रति आसक्त रहता है। जो व्यक्ति परमेश्वर के निराकार रूप, ब्रह्मज्योति, के प्रति आसक्त होता है उसे भगवद्गीता में महात्मा नहीं कहा गया। उसे अगले श्लोक में अन्य प्रकार से वर्णित किया गया है। महात्मा सदैव भक्ति के विविध कार्यों में, यथा विष्णु केश्रवण-कीर्तन में, व्यस्त रहता है, जैसा कि श्रीमद्भागवत में उल्लेख है। यही भक्ति श्रवणं कीर्तनं विष्णोः तथा स्मरणं है। ऐसा महात्मा अन्ततः भगवान् के पाँच दिव्य रसों में से किसी एक रस में उनका सान्निध्य प्राप्त करने के लिए दृढव्रतहोता है। इसे प्राप्त करने के लिए वह मनसा वाचा कर्मणा अपने सारे कार्यकलाप भगवान् कृष्ण की सेवा में लगाता है। यही पूर्ण कृष्णभावनामृत कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सततम्–निरन्तर; कीर्तयन्तः–कीर्तन करते हुए; माम्–मेरे विषयमें; यतन्तः–प्रयास करते हुए; च–भी; दृढ़-व्रताः–संकल्पपूर्वक; नमस्यन्तः–नमस्कार करते हुए; च–तथा; माम्–मुझको; भक्त्या–भक्ति में; नित्य-युक्ताः–सदैव रत रहकर; उपासते–पूजा करते हैं।
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज