श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 779

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-48


सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमति न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता: ॥48॥[1]

भावार्थ

प्रत्येक उद्योग (प्रयास) किसी न किसी दोष से आवृत होता है, जिस प्रकार अग्नि धुएँ से आवृत रहती है। अतएव हे कुन्तीपुत्र! मनुष्य को चाहिए कि स्वभाव से उत्पन्न कर्म को, भले ही वह दोषपूर्ण क्यों न हो, कभी त्यागे नहीं।

तात्पर्य

बद्ध जीवन में सारा कर्म भौतिक गुणों से दूषित रहता है। यहाँ तक कि ब्राह्मण तक को ऐसे यज्ञ करने पड़ते हैं, जिनमें पशु हत्या अनिवार्य है। इसी प्रकार क्षत्रिय चाहे कितना ही पवित्र क्यों न हो, उसे शत्रुओं से युद्ध करना पड़ता है। वह इससे बच नहीं सकता। इसी प्रकार एक व्यापारी को चाहे वह कितना ही पवित्र क्यों न हो, अपने व्यापार में बने रहने के लिए कभी-कभी लाभ को छिपाना पड़ता है, या कभी-कभी कालाबाज़ार चलाना पड़ता है। ये बातें आवश्यक हैं, इनसे बचा नहीं जा सकता। इसी प्रकार यदि शूद्र होकर बुरे स्वामी की सेवा करनी पड़े तो उसे स्वामी की आज्ञा का पालन करना होता है, भले ही ऐसा नहीं होना चाहिए। इस सब दोषों के होते हुए भी, मनुष्य को अपने निर्दिष्ट कर्तव्य करते रहना चाहिए, क्योंकि वे स्वभावगत हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सहजम्= एक साथ उत्पन्न; कर्म= कर्म; कौन्तेय= हे कुन्तीपुत्र; स-दोषम्= दोषयुक्त; अपि= यद्यपि; न= कभी नहीं; त्यजेत्= त्यागना चाहिए; सर्व= आरम्भाः= सारे उद्योग; हि= निश्चय ही; दोषेण= दोष से; धूमेन= धुँए से; अग्निः= अग्नि; इव= सदृश; आवृताः= ढके हुए।

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