श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 748

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-19


ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदत: ।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥19॥[1]

भावार्थ

प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार ही ज्ञान, कर्म तथा कर्ता के तीन-तीन भेद हैं। अब तुम मुझसे इन्हें सुनो।

तात्पर्य

चौदहवें अध्याय में प्रकृति के तीन गुणों का विस्तार से वर्णन हो चुका है। उस अध्याय में कहा गया था कि सतोगुण प्रकाशक होता है, रजोगुण भौतिकवादी तथा तमोगुण आलस्य तथा प्रमाद का प्रेरक होता है। प्रकृति के सारे गुण बन्धनकारी हैं, वे मुक्ति के साधन नहीं हैं। यहाँ तक कि सतोगुण में भी मनुष्य बद्ध रहता है। सत्रहवें अध्याय में विभिन्न प्रकार के मनुष्यों द्वारा विभिन्न गुणों में रहकर की जाने वाली विभिन्न प्रकार की पूजा का वर्णन किया गया। इस श्लोक में भगवान कहते हैं कि वे तीनों गुणों के अनुसार विभिन्न प्रकार के ज्ञान, कर्ता तथा कर्म के विषय में बताना चाहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ज्ञानम्= ज्ञान; कर्म= कर्म; च= भी; कर्ता= कर्ता; च= भी; त्रिधा= तीन प्रकार का; एव= निश्चय ही; गुण-भेदतः= प्रकृति के विभिन्न गुणों के अनुसार; प्रोच्यते= कहे जाते हैं; गुण-संडख्याने- विभिन्न गुणों के रूप में; यथा-वत्= जिस रूप में हैं उसी में; शृणु= सुनो; तानि= उन सबों को; अपि= भी।

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