श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 698

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-2


श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥2॥[1]

भावार्थ

भगवान ने कहा- देहधारी जीव द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार उसकी श्रद्धा तीन प्रकार की हो सकती है- सतोगुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी। अब इसके विषय में मुझसे सुनो।

तात्पर्य

जो लोग शास्त्रों के विधि-विधानों को जानते हैं, लेकिन आलस्य या कार्यविमुखतावश इनका पालन नहीं करते, वे प्रकृति के गुणों द्वारा शासित होते हैं। वे अपने सतोगुणी, रजोगुणी या तमोगुणी पूर्वकर्मों के अनुसार एक विशेष प्रकार का स्वभाव प्राप्त करते हैं। विभिन्न गुणों के साथ जीव की संगति शाश्वत चलती रही है। चूँकि जीव प्रकृति के संसर्ग में रहता है, अतएव वह प्रकृति के गुणों के अनुसार ही विभिन्न प्रकार की मनोवृत्तियाँ अर्जित करता है। लेकिन यदि कोई प्रामाणिक गुरु की संगति करता है और उसके तथा शास्त्रों के विधि-विधानों का पालन करता है, तो उसकी यह मनोवृत्ति बदल सकती है। वह क्रमशः अपनी स्थिति तमोगुण से सतोगुण या रजोगुण से सतोगुण में परिवर्तित कर सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति के किसी गुण विशेष में अंधविश्वास करने से ही व्यक्ति सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। उसे प्रामाणिक गुरु की संगति में रहकर बुद्धिपूर्वक बातों पर विचार करना होता है। तभी वह उच्चतर गुण की स्थिति को प्राप्त हो सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीभगवान् उवाच= भगवान् ने कहा; त्रि-विधा= तीन प्रकार की; भवति= होती है; श्रद्धा= श्रद्धा; देहिनाम्= देहधारियों की; सा= वह; स्व-भाव-जा= प्रकृति के गुण के अनुसार; सात्त्विकी= सतोगुणी; राजसी= रजोगुणी; च= भी; एव= निश्चय ही; तामसी= तमोगुणी; च= तथा; इति= इस प्रकार; ताम्= उसको; शृणु= मुझसे सुनो।

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