श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 689

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-19


तानहं द्विषत: क्रूरान्संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्यजस्त्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥19॥[1]

भावार्थ

जो लोग ईष्‍यालु तथा क्रूर हैं और नराधम हैं, उन्हें में निरन्तर विभिन्न आसुरी योनियों में, भवसागर में डालता रहता हूँ।

तात्पर्य

इस श्लोक मं स्पष्ट इंगित हुआ है कि किसी जीव को किसी विशेष शरीर में रखने का परमेश्वर को विशेष अधिकार प्राप्त है। आसुरी लोग भले ही भगवान की श्रेष्ठता को न स्वीकार करें और वे अपनी निजी सनकों के अनुसार कर्म करें लेकिन उनका अगला जन्म भगवान के निर्णय पर निर्भर करेगा, उन पर नहीं। श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्द में कहा गया है कि मत्यु के बाद जीव को माता के गर्भ में रखा जाता है, जहाँ उच्च शक्ति के निरीक्षण में उसे विशेष प्रकार का शरीर प्राप्त होता है। यही कारण है कि संसार में जीवों की इतनी योनियाँ प्राप्त होती हैं- यथा पशु, कीट, मनुष्य आदि। यह सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हैं। ये अकस्मात् नहीं आई। जहाँ तक असुरों की बात है, यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि यह असुरों के गर्भ में निरन्तर रखे जाते हैं। इस प्रकार ये ईर्ष्यालु बने रहते हैं और मानवों में अधम हैं। ऐसे आसुरी योनि वाले मनुष्य सदैव काम से पूरित करते हैं, सदैव अग्र घृणास्पद तथा अपवित्र होते हैं। जंगलों के अनेक शिकारी मनुष्य आसुरी योनि से सम्बन्धित माने जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तान्= उन; अहम्= मैं; द्विषतः= ईष्‍यालु; क्रूरान्= शरारती लोगों को; संसारेषु= भवसागर में; नरअधमान्= अधम मनुष्यों को; क्षिपामि= डालता हूँ; अजस्त्रम्= सदैव; अशुभान्= अशुभ; आसुरीषु= आसुरी; एव= निश्चय ही; योनिषु= गर्भ में।

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