श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 174

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-1


श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।[1]

भावार्थ

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान को दिया और विवस्वान ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया।

तात्पर्य

यहाँ पर भगवद्गीता का इतिहास प्राप्त होता है। यह अत्यन्त प्राचीन बताया गया है, जब इसे सूर्यलोक इत्यादि सम्पूर्ण लोकों के राजा को प्रदान किया गया था। समस्त लोकों के राजा विशेष रूप से निवासियों की रक्षा के निमित्त होते हैं, अतः राजन्यवर्ग को भगवद्गीता की विद्या को समझना चाहिए, जिससे वे नागरिकों (प्रजा) पर शासन कर सकें और उन्हें काम-रूपी भवबन्धन से बचा सकें। मानव जीवन का उद्देश्य भगवान के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध के आध्यात्मिक ज्ञान का विकास है और सारे राज्यों तथा समस्त लोकों के शासनाध्यक्षों को चाहिए कि शिक्षा, संस्कृति तथा भक्ति द्वारा नागरिकों को यह पाठ पढ़ाएँ। दूसरे शब्दों में, सारे राज्य के शासनाध्यक्ष कृष्णभावनामृत विद्या का प्रचार करने के लिए होते हैं, जिससे जनता इस महाविद्या का लाभ उठा सके और मनुष्य जीवन के अवसर का लाभ उठाते हुए सफल मार्ग का अनुसरण कर सके।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री-भगवान् उवाच – श्रीभगवान् ने कहा; इमम् – इस; विवस्वते – सूर्यदेव को; योगम् – परमेश्वर क्र साथ अपने सम्बन्ध की विद्या को; प्रोक्तवान् – उपदेश दिया; अहम् – मैंने; अव्ययम् – अमर; विवस्वान् – विवस्वान् (सूर्यदेव के नाम) ने; मनवे – मनुष्यों के पिता (वैवस्वत) से; प्राह – कहा; मनुः – मनुष्यों के पिता ने; इक्ष्वाकवे – राजा इक्ष्वाकु से; अब्रवीत् – कहा।

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