श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 400

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-13


महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।[1]

भावार्थ

हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान के रूप में जानते हैं।

तात्पर्य

इस श्लोक में महात्मा का वर्णन हुआ है। महात्मा का सबसे पहला लक्षण यह है कि वह दैवी प्रकृति में स्थित रहता है। वह भौतिक प्रकृति के अधीन नहीं होता और यह होता कैसे है? इसकी व्याख्या सातवें अध्याय में की गई है– जो भगवान श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करता है वह तुरन्त भौतिक प्रकृति के वश से मुक्त हो जाता है। यही वह पात्रता है। ज्योंही कोई भगवान का शरणागत हो जाता है वह भौतिक प्रकृति के वश से मुक्त हो जाता है। यही मूलभूत सूत्र है। तटस्था शक्ति होने के कारण जीव ज्योंही भौतिक प्रकृति के वश से मुक्त होता है त्योंही वह आध्यात्मिक प्रकृति के निर्देशन में चला जाता है। आध्यात्मिक प्रकृति का निर्देशन ही दैवी प्रकृति कहलाती है। इस प्रकार से जब कोई भगवान के शरणागत होता है तो उसे महात्मा पद की प्राप्ति होती है।

महात्मा अपने ध्यान को कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी ओर नहीं ले जाता, क्योंकि वह भलीभाँति जानता है कि कृष्ण ही आदि परम पुरुष, समस्त कारणों के कारण हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। ऐसा महात्मा अन्य महात्माओं या शुद्ध भक्तों की संगति से प्रगति करता है। शुद्ध भक्त तो कृष्ण के अन्य स्वरूपों, यथा चतुर्भुज महाविष्णु रूप से भी आकृष्ट नहीं होते। वे न तो कृष्ण के अन्य किसी रूप से आकृष्ट होते हैं, न ही वे देवताओं या मनुष्यों के किसी रूप की परवाह करते हैं। वे कृष्ण भावनामृत में केवल कृष्ण का ध्यान करते हैं। वे कृष्ण भावनामृत में निरन्तर भगवान की अविचल सेवा में लगे रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महा-आत्मनः–महापुरुष; तु–लेकिन; माम्–मुझको; पार्थ–हे पृथापुत्र; देवीम्–दैवी; प्रकृतिम्–प्रकृति के; आश्रिताः–शरणागत; भजन्ति–सेवा करते हैं; अनन्य-मनसः–अविचलित मन से; ज्ञात्वा–जानकर; भूत–सृष्टि का; आदिम्–उद्गम; अव्ययम्–अविनाशी।

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