श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 811

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-71


श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नर: ।
सोऽपि मुक्त: शुभांल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥71॥[1]

भावार्थ

और जो श्रद्धा समेत तथा द्वेषरहित होकर इसे सुनता है, वह सारे पापों से मुक्त हो जाता है और उन शुभ लोकों को प्राप्त होता है, जहाँ पुण्यात्माएँ निवास करती हैं।

तात्पर्य

इस अध्याय के 67 वें श्लोक में भगवान ने स्पष्टतः मना किया है कि जो लोग उनसे द्वेष रखते हैं उन्हें गीता न सुनाई जाए। भगवद्गीता केवल भक्तों के लिए है। लेकिन ऐसा होता है कि कभी-कभी भगवद्भक्त आम कक्षा में प्रवचन करता है और उस कक्षा में सारे छात्रों के भक्त होने की अपेक्षा नहीं की जाती। तो फिर ऐसे लोग खुली कक्षा क्यों चलाते है? यहाँ यह बताया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति भक्त नहीं होता, फिर भी बहुत से लोग ऐसे हैं, जो कृष्ण से द्वेष नहीं रखते। उन्हें कृष्ण पर परमेश्वर रूप में श्रद्धा रहती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रद्धा-वान्= श्रद्धालु; अनसूयः= द्वेषरहित; च= तथा; शृणयात्= सुनता है; अपि= निश्चय ही; यः= जो; नरः= मनुष्य; सः= वह; अपि= भी; मुक्त= मुक्त होकर; शुभान्= शुभ; लोकान्= लोकों को; प्राप्नुयात्= प्राप्त करता है; पुण्य-कर्मणाम्= पुण्यात्माओं का।

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