श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 358

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

भगवत्प्राप्ति
अध्याय 8 : श्लोक-9


कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥[1]

भावार्थ

मनुष्य को चाहिए कि परम पुरुष का ध्यान सर्वज्ञ, पुरातन, नियन्ता, लघुतम से भी लघुतर, प्रत्येक के पालनकर्ता, समस्त भौतिक बुद्धि से परे, अचिन्त्य तथा नित्य पुरुष के रूप में करे। वे सूर्य की भाँति तेजवान हैं और इस भौतिक प्रकृति से परे, दिव्य रूप हैं।

तात्पर्य

इस श्लोक में परमेश्वर के चिन्तन की विधि का वर्णन हुआ है। सबसे प्रमुख बता यह है कि वे निराकार या शून्य नहीं हैं। कोई निराकार या शून्य का चिन्तन कैसे कर सकता है? यह अत्यन्त कठिन है। किन्तु कृष्ण के चिन्तन की विधि अत्यन्त सुगम है और तथ्य रूप में यहाँ वर्णित है। पहली बात तो यह है कि भगवान पुरुष हैं– हम राम तथा कृष्ण को पुरुष रूप में सोचते हैं। चाहे कोई राम का चिन्तन करे या कृष्ण का, वे जिस तरह के हैं उसका वर्णन भगवद्गीता के इस श्लोक में किया गया है। भगवान कवि हैं अर्थात वे भूत, वर्तमान तथा भविष्य के ज्ञाता हैं, अतः वे सब कुछ जानने वाले हैं। वे प्राचीनतम पुरुष हैं क्योंकि वे समस्त वस्तुओं के उद्गम हैं, प्रत्येक वस्तु उन्हीं से उत्पन्न है। वे ब्रह्माण्ड के परम नियन्ता भी हैं। वे मनुष्यों के पालक तथा शिक्षक हैं। वे अणु से भी सूक्ष्म हैं। जीवात्मा बाल के अग्र भाग के दस हजारवें अंश के बराबर है, किन्तु भगवान अचिन्त्य रूप से इतने लघु हैं कि वे इस अणु के भी हृदय में प्रविष्ट रहते हैं। इसलिए वे लघुतम से भी लघुतर कहलाते हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कविम् – सर्वज्ञ; पुराणम् – प्राचीनतम, पुरातन; अनुशासितारम् – नियन्ता; अणोः – अणु की तुलना में; अणीयांसम् – लघुतर; अनुस्मरेत् – सदैव सोचता है; यः – जो; सर्वस्य – हर वस्तु का; धातारम् – पालक; अचिन्त्य – अकल्पनीय; रूपम् – जिसका स्वरूप; आदित्य-वर्णम् – सूर्य के समान प्रकाशमान; तमसः – अंधकार से; परस्तात् – दिव्य, परे।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः