श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 795

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-60


स्वभावजेन कौन्तेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ॥60॥[1]

भावार्थ

इस समय तुम मोहवश मेरे निर्देशानुसार कर्म करने से मना कर रहे हो। लेकिन हे कुन्तीपुत्र! तुम अपने ही स्वभाव से उत्पन्न कर्म द्वारा बाध्य होकर वही सब करोगे।

तात्पर्य

यदि कोई परमेश्वर के निर्देशानुसार कर्म करने से मना करता है, तो वह उन गुणों द्वारा कर्म करने के लिए बाध्य होता है, जिनमें वह स्थित होता है। प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के गुणों के विशेष संयोग के वशीभूत है और तदानुसार कर्म करता है। किन्तु जो स्वेच्छा से परमेश्वर के निर्देशानुसार कार्यरत होता है, वही गौरवान्वित होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्वभाव-जेन= अपने स्वभाव से उत्पन्न; कौन्तये= हे कुन्तीपुत्र; निबद्धः= बद्ध; स्वेन= तुम अपने; कर्मणा= कार्यकलापों से; कर्तुम्= करने के लिए; न= नहीं; इच्छसि= इच्छा करते हो; यत्= जो; मोहात्= मोह से; करिष्यसि= करोगे; अवशः= अनिच्छा से; अपि= भी; तत्= वह।

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