श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 685

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-16


अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालंसमावृता: ।
प्रसक्ता: कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽश्चौ ॥16॥[1]

भावार्थ

इस प्रकार अनेक चिन्ताओं से उद्विग्न होकर तथा मोहजाल में बँधकर वे इन्द्रियभोग में अत्यधिक आसक्त हो जाते हैं और नरक में गिरते हैं।

तात्पर्य

आसुरी व्यक्ति धन अर्जित करने की इच्छा की काई सीमा नहीं जानता। उसकी इच्छा असीम बनी रहती है। वह केवल यही सोचता रहता है, कि उसके पास इस कितनी सम्पत्ति है और ऐसी योजना चाहता है कि सम्पत्ति का संग्रह बढ़ता ही जाय। इसीलिए वह किसी भी पापपूर्ण साधन को अपनाने में झिझकता नहीं और अवैध तृप्ति के लिए कालाबाजारी करता है। वह पहले से अपनी अधिकृत सम्पत्ति, यथा भूमि, परिवार, घर तथा बैंक पूँजी पर मुग्ध रहता है और उनमें वृद्धि के लिए सदैव योजनाएँ बनाता रहता है। उसे अपनी शक्ति पर ही विश्वास रहता है और वह यह नहीं जानता कि उसे जो लाभ हो रहा है। वह उसके पूर्वजन्म के पुण्यकर्मों का फल है। उसे ऐसी वस्तुओं का संचय करने का अवसर इसलिए मिला है, लेकिन उसे पूर्वजन्म के कारणों का कोई बोध नहीं होता। वह यही सोचता है कि उसकी सारी सम्पत्ति उसके निजी उद्योग से है। आसुरी व्यक्ति अपने बाहु-बल पर विश्वास करता है, कर्म के नियम पर नहीं। कर्म-नियम के अनुसार पूर्वजन्म में उत्तम कर्म करने के फलस्वरूप मनुष्य उच्चकुल में जन्म लेता है, या धनवान बनता है या सुशिक्षित बनता है, या बहुत सुन्दर शरीर प्राप्त करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अनेक= कई; चित्त= चिन्ताओं से; विभ्रान्ताः= उद्विग्न; मोह= मोह में; जाल= जाल से; समावृताः= घिरे हुए; प्रसक्ताः= आसक्त; काम= भोगेषु= इन्द्रियतृप्ति में; पतन्ति= गिर जाते हैं; नरके= नरक में; अशुचै= अपवित्र।

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