श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 564

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-6-7


महाभूतान्यहंकारों बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पंच चेन्द्रियगोचरा: ॥6॥

इच्छा द्वेष: सुखं दु:खं संघातश्चेतना धृति: ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥7॥[1]

भावार्थ

पंच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त[2], दसों इन्द्रियाँ तथा मन, पाँच इन्द्रियविषय, इच्छा, द्वेष सुख, दुख, संघात, जीवन के लक्षण तथा धैर्य- इन सब को संक्षेप में कर्म का क्षेत्र तथा उसकी अन्तःक्रियाएँ (विकार) कहा जाता है।

तात्पर्य

महर्षियों, वैदिक सूक्तों (छान्दस) एवं वेदान्त-सूत्र (सूत्रों) के प्रामाणिक कथनों के आधार पर इस संसार के अवयवों को इस प्रकार से समझा जा सकता है। पहले तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश- ये पाँच महाभूत हैं। फिर अहंकार, बुद्धि तथा तीनों गुणों की अव्यक्त अवस्था आती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महा-भूतानि=स्थूल तत्त्व; अहंकारः=मिथ्या अभिमान; बुद्धिः=बुद्धि; अव्यक्तम्=अप्रकट; एव=निश्चय ही; च=भी; इन्द्रियाणि=इन्द्रियाँ; दश-एकम्=ग्यारह; च=भी; पंच=पाँच; च=भी; इन्द्रिय-गो-चराः=इन्द्रियों के विषय; इच्छा=इच्छा; द्वेषः=घृणा; सुखम्=सुख; दुःखम्=दुख; संघातः=समूह; चेतना=जीवन के लक्षण; धृतिः=धैर्य; एतत्= यह सारा; क्षेत्रम्=कर्मों का क्षेत्र; समासेन=संक्षेप में; स-विकारम्=अन्तःक्रियाओं सहित; उदाहृतम्=उदाहरणस्वरूप कहा गया।
  2. तीनों गुणों की अप्रकट अवस्था

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