श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-24
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं' भावार्थ अध्याय-11 : श्लोक-25
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि भावार्थ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नभः-स्पृशम् – आकाश छूता हुआ; दीप्तम् – ज्योर्तिमय; अनेक – कई; वर्णम् – रंग; व्याक्त – खुले हुए; आननम् – मुख; दीप्त – प्रदीप्त; विशाल – बड़ी-बड़ी; नेत्रम् – आँखें; दृष्ट्वा – देखकर; हि – निश्चय ही; त्वाम् – आपको; प्रव्यथितः – विचलित, भयभीत; अन्तः – भीतर; आत्मा – आत्मा; धृतिम् – दृढ़ता या धैर्य को; न – नहीं; विन्दामि – प्राप्त हूँ; शमम् – मानसिक शान्ति को; च – भी; विष्णो – हे विष्णु ।
- ↑ दंष्ट्रा – दाँत; करालानि – विकराल; च – भी; ते - आपके; मुखानि – मुखों को; दृष्ट्वा – देखकर; एव – इस प्रकार; काल-अनल – प्रलय की; सन्नि-भानि – मानो; दिशः – दिशाएँ; न – नहीं; जाने – जानता हूँ; न – नहीं; लभे – प्राप्त करता हूँ; च – तथा; शर्म – आनन्द; प्रसीद – प्रसन्न हों; देव-ईश – हे देवताओं के स्वामी; जगत्-निवास– हे समस्त जगतों के आश्रय।
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