श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 497

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-30

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ता-
ल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं
भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो।[1]

भावार्थ

हे विष्णु! मैं देखता हूँ कि आप अपने प्रज्जवलित मुखों से सभी दिशाओं के लोगों को निगल रहे हैं। आप सारे ब्रह्माण्ड को अपने तेज से आपूरित करके अपनीविकराल झुलसाती किरणों सहित प्रकट हो रहे हैं।

अध्याय-11 : श्लोक-31

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो
नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं
न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥[2]

भावार्थ

हे देवेश! कृपा करके मुझे बतलाइये कि इतने उग्ररूप में आप कौन हैं? मैं आपको नमस्कार करता हूँ, कृपा करके मुझ पर प्रसन्न हों। आप आदि-भगवान् हैं। मैं आपको जानना चाहता हूँ, क्योंकि मैं नहीं जान पा रहा हूँ कि आपका प्रयोजन क्या है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लेलिह्यसे – चाट रहे हैं; ग्रसमानः – निगलते हुए; समन्तात् – समस्त दिशाओं से; लोकान् – लोगों को; समग्रान् – सभी; वदनैः – मुखों से; ज्वलब्धिः – जलते हुए; तेजोभिः – तेज से; आपूर्य – आच्छादित करके; जगत् – ब्रह्माण्ड को; समग्रम् – समस्त; भासः – किरणें; तव – आपकी; उग्राः – भयंकर; प्रतपन्ति – झुलसा रही हैं; विष्णो – हे विश्वव्यापी भगवान्।
  2. आख्याहि – कृपया बताएं; मे – मुझको; कः – कौन; भवान् – आप; उग्र-रूपः – भयानक रूप; नमः-अस्तु – नमस्कार को; ते – आपको; देव-वर – हे देवताओं में श्रेष्ठ; प्रसीद – प्रसन्न हों; विज्ञातुम् – जानने के लिए; इच्छामि – इच्छुक हूँ; भवन्तम् – आपको; आद्यम् – आदि; न – नहीं; हि – निश्चय ही; प्रजानामि – जानता हूँ; तव – आपका; प्रवृत्तिम् – प्रयोजन।

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