श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 481

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-8


न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्।।[1]

भावार्थ

किन्तु तुम मुझे अपनी इन आँखों से नहीं देख सकते। अतः मैं तुम्हें दिव्य आँखें दे रहा हूँ। अब मेरे योग ऐश्वर्य को देखो।

तात्पर्य

शुद्धभक्त कृष्ण को, उनके दोभुजी रूप अतिरिक्त, अन्य किसी भी रूप में देखने की इच्छा नहीं करता। भक्त को भगवत्कृपा से ही उनके विराट रूप का दर्शन दिव्य चक्षुओं (नेत्रों) से करना होता है, न कि मन से। कृष्ण के विराट रूप का दर्शन करने के लिए अर्जुन से कहा जाता है कि वह अपने मन को नहीं, अपितु दृष्टि को बदले। कृष्ण का यह विराट रूप कोई महत्त्वपूर्ण नहीं है, यह बाद के श्लोकों से पता चल जाएगा। फिर भी, चूँकि अर्जुन इसका दर्शन करना चाहता था, अतः भगवान ने उसे विराट रूप को देखने के लिए विशिष्ट दृष्टि प्रदान की।

जो भक्त कृष्ण के साथ दिव्य सम्बन्ध से बँधे हैं, वे उनके ऐश्वर्यों के ईश्वरविहीन प्रदर्शनों से नहीं, अपितु उनके प्रेममय स्वरूपों से आकृष्ट होते हैं। कृष्ण के बालसंगी, कृष्ण सखा तथा कृष्ण के माता-पिता यह कभी नहीं चाहते कि कृष्ण उन्हें अपने ऐश्वर्यों का प्रदर्शन कराएँ। वे तो शुद्ध प्रेम में इतने निमग्न रहते हैं कि उन्हें पता ही नहीं चलता कि कृष्ण भगवान हैं। वे प्रेम के आदान-प्रदान में इतने विभोर रहते हैं कि वे भूल जाते हैं कि श्रीकृष्ण परमेश्वर हैं। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि कृष्ण के साथ खेलने वाले बालक अत्यन्त पवित्र आत्माएँ हैं और कृष्ण के साथ इस प्रकार खेलने का अवसर उन्हें अनेकानेक जन्मों के बाद प्राप्त हुआ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न-कभी नहीं; तु-लेकिन; माम्-मुझको; शक्यसे-तुम समर्थ होगे; द्रष्टुम्-देखने में; अनेन-इन; एव-निश्चय ही; स्व-चक्षुषा-अपनी आँखों से; दिव्यम्-दिव्य; ददामि-देता हूँ; ते-तुमको; चक्षुः-आँखें; पश्य-देखो; मे-मेरी; योगम् ऐश्वरम्-अचिन्त्य योगशक्ति।

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