श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 703

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-5-6


अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जना: ।
दम्भाहंकारसंयुक्ता: कामरागबलान्विता: ॥5॥
कर्षयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस: ।
मां चैवान्त:शरीरस्थं तान्विद्ध्यवासुरनिश्चयान् ॥6॥[1]

भावार्थ

जो लोग दम्भ तथा अहंकार से अभिभूत होकर शास्त्रविरुद्ध कठोर तपस्या और व्रत करते हैं, जो काम तथा आसक्ति द्वारा प्रेरित होते हैं जो मूर्ख हैं तथा जो शरीर के भौतिक तत्त्वों को तथा शरीर के भीतर स्थित परमात्मा को कष्ट पहुँचाते हैं, वे असुर कहे जाते हैं।

तात्पर्य

कुछ पुरुष ऐसे हैं जो ऐसी तपस्या की विधियों का निर्माण कर लेते हैं, जिनका वर्णन शास्त्रों में नहीं है। उदाहरणार्थ, किसी स्वार्थ के प्रयोजन से, यथा राजनीतिक कारणों से उपवास करना शास्त्रों में वर्णित नहीं है। शास्त्रों में तो आध्यात्मिक उन्नति के लिए उपवास करने की संस्तुति है, किसी राजनीतिक या सामाजिक उद्देश्य के लिए नहीं। भगवद्गीता के अनुसार जो लोग ऐसी तपस्याएँ करते हैं वे निश्चित रूप से आसुरी हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अ-शास्त्र= जो शास्त्रों में नहीं है; विहितम्= निर्देशित; घोरम्= अन्यों के लिए हानिप्रद; तप्यन्ते= तप करते हैं; ये= जो लोग; तपः= तपस्या; जनाः= लोग; दम्भ= घमण्ड; अहंकार= तथा अहंकार से; संयुक्ताः= प्रवृत्त; काम= काम; राग= तथा आसक्ति का; बल= बलपूर्वक; अन्विताः= प्रेरित; कर्षयन्तः= कष्ट देते हुए; शरीर-स्थम्= शरीर के भीतर स्थित; भूत-ग्रामम्= भौतिक तत्त्वों का संयोग; अचेतसः= भ्रमित मनोवृत्ति वाले; माम्= मुझको; च= भी; एव= निश्चय ही; अन्तः= भीतर; शरीर-स्थम्= शरीर में स्थित; तान्= उनको; विद्धि= जानो; आसुर-निश्चयान्= असुर।

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