श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 413

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-26


पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः।।[1]

भावार्थ

यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।

तात्पर्य

नित्य सुख के लिए स्थायी, आनन्दमय धाम प्राप्त करने हेतु बुद्धिमान व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह कृष्णभावनाभावित होकर भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में तत्पर रहे। ऐसा आश्चर्यमय फल प्राप्त करने की विधि इतनी सरल है की निर्धन से निर्धन व्यक्ति को योग्यता का विचार किये बिना इसे पाने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए एकमात्र योग्यता इतनी ही है कि वह भगवान का शुद्धभक्त हो। इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि कोई क्या है और कहाँ स्थित है। यह विधि इतनी सरल है कि यदि प्रेम पूर्वक एक पत्ती, थोड़ा सा जल या फल ही भगवान को अर्पित किया जाता है तो भगवान उसे सहर्ष स्वीकार करते हैं। अतः किसी को भी कृष्णभावनामृत से रोका नहीं जा सकता, क्योंकि यह सरल है और व्यापक है। ऐसा कौन मुर्ख होगा जो इस सरल विधि से कृष्णभावनाभावित नहीं होना चाहेगा और सच्चिदानन्दमय जीवन की परम सिद्धि नहीं चाहेगा? कृष्ण को केवल प्रेमाभक्ति चाहिए और कुछ भी नहीं। कृष्ण तो अपने शुद्धभक्त से एक छोटा सा फूल तक ग्रहण करते हैं। किन्तु अभक्त से वे कोई भेंट नहीं चाहते। उन्हें किसी से कुछ भी नहीं चाहिए, क्योंकि वे आत्मतुष्ट हैं, तो भी वे अपने भक्त की भेंट प्रेम तथा स्नेह के विनिमय मे स्वीकार करते हैं। कृष्णभावनामृत विकसित करना जीवन का चरम लक्ष्य है। इस श्लोक मे भक्ति शब्द का उल्लेख दो बार यह करने के लिए हुआ है कि भक्ति ही कृष्ण के पास पहुँचने का एकमात्र साधन है। किसी अन्य शर्त से, यथा ब्राह्मण, विद्वान, धनी या महान विचारक होने से, कृष्ण किसी प्रकार कि भेंट लेने को तैयार नहीं होते।

भक्ति ही मूल सिद्धान्त है, जिसके बिना वे किसी से कुछ भी लेने के लिए प्रेरित नहीं किये जा सकते। भक्ति कभी हैतुकी नहीं होती। यह शाश्वत विधि है। यह परब्रह्म की सेवा में प्रत्यक्ष कर्म है। यह बतला कर कि वे ही एकमात्र भोक्ता, आदि स्वामी और समस्त यज्ञ-भेंटों के वास्तविक लक्ष्य हैं, अब भगवान कृष्ण यह बताते हैं कि वे किस प्रकार भेंट पसंद करते हैं। यदि कोई शुद्ध होने तथा जीवन के लक्ष्य तक पहुँचने के उद्देश्य से भगवद्भक्ति करना चाहता है तो उसे चाहिए कि वह पता करे कि भगवान उससे क्या चाहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पत्रम्–पत्ती; पुष्पम्–फूल; फलम् - फल; तोयम्–जल; यः–जो कोई; मे–मुझको; भक्त्या–भक्तिपूर्वक; प्रयच्छति–भेंट करता है; तत्–वह; अहम्–मैं; भक्ति-उपहृतम्–भक्तिभाव से अर्पित; अश्नामि–स्वीकार करता हूँ; प्रयत-आत्मनः–शुद्धचेतना वाले से।

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