श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 193

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-11

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥[1]

भावार्थ

जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ। हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है।

तात्पर्य

प्रत्येक व्यक्ति कृष्ण को उनके विभिन्न स्वरूपों में खोज रहा है। भगवान श्रीकृष्ण को अंशतः उनके निर्विशेष ब्रह्मज्योति तेज में तथा प्रत्येक वस्तु के कण-कण में रहने वाले सर्वव्यापी परमात्मा के रूप में अनुभव किया जाता है, लेकिन कृष्ण का पूर्ण साक्षात्कार तो उनके शुद्ध भक्त ही कर पाते हैं। फलतः कृष्ण प्रत्येक व्यक्ति की अनुभूति के विषय हैं और इस तरह कोई भी और सभी अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार तुष्ट होते हैं। दिव्य जगत में भी कृष्ण अपने शुद्ध भक्तों के साथ दिव्य भाव से विनिमय करते हैं जिस तरह कि भक्त उन्हें चाहता है। कोई एक भक्त कृष्ण को परम स्वामी के रूप में चाह सकता है, दूसरा अपने सखा के रूप में, तीसरा अपने पुत्र के रूप में और चौथा अपने प्रेमी के रूप में। कृष्ण सभी भक्तों को समान रूप से उनके प्रेम की प्रगाढ़ता के अनुसार फल देते हैं। भौतिक जगत में भी ऐसी ही विनिमय की अनुभूतियाँ होती हैं और वे विभिन्न प्रकार के भक्तों के अनुसार भगवान द्वारा समभाव से विनिमय की जाती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ये – जो; यथा – जिस तरह; माम् – मेरी; प्रपद्यन्ते – शरण में जाते हैं; तान् – उनको; तथा – उसी तरह; एव – निश्चय ही; भजामि – फल देता हूँ; अहम् – मैं; मम – मेरे; वर्त्म – पथ का; अनुवर्तन्ते – अनुगमन करते हैं; मनुष्याः – सारे मनुष्य; पार्थ – हे पृथापुत्र; सर्वशः – सभी प्रकार से।

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