श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-46
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके। भावार्थ
एक छोटे से कूप का सारा कार्य एक विशाल जलाशय से तुरन्त पूरा हो जाता है। इसी प्रकार वेदों के आन्तरिक तात्पर्य जानने वाले को उनके सारे प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं। तात्पर्य
वेदों के कर्मकाण्ड विभाग में वर्णित अनुष्ठानों एवं यज्ञों का ध्येय आत्म-साक्षात्कार के क्रमिक विकास को प्रोत्साहित करना है। और आत्म-साक्षात्कार का ध्येय भगवद्गीता के पंद्रहवें अध्याय में[2] इस प्रकार स्पष्ट किया गया है– वेद अध्ययन का ध्येय जगत् के आदि कारण भगवान् कृष्ण को जानना है। अतः आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है– कृष्ण को तथा उसके साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध को समझना। कृष्ण के साथ जीवों के सम्बन्ध का भी उल्लेख भगवद्गीता के पंद्रहवें अध्याय में[3] ही हुआ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यावान् – जितना सारा; अर्थः – प्रयोजन होता है; उद-पाने – जलकूप में; सर्वतः – सभी प्रकार से; सम्लुप्त-उदके – विशाल जलाशय में; तावान् – उसी तरह; सर्वेषु – समस्त; वेदेषु – वेदों में; ब्राह्मणस्य – परब्रह्म को जानने वाले का; विजानतः – पूर्ण ज्ञानी का।
- ↑ 15.15
- ↑ 15.7
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