श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 699

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-3


सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव स: ॥3॥[1]

भावार्थ

हे भरतपुत्र! विभिन्न गुणों के अन्तर्गत अपने अपने अस्तित्व के अनुसार मनुष्य एक विशेष प्रकार की श्रद्धा विकसित करता है। अपने द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार ही जीव को विशेष श्रद्धा से युक्त कहा जाता है।

तात्पर्य

प्रत्येक व्यक्ति में चाहे वह जैसा भी हो, एक विशेष प्रकार की श्रद्धा पाई जाती है। लेकिन उसके द्वारा अर्जित स्वभाव के अनुसार उसकी श्रद्धा उत्तम (सतोगुणी), राजस (रजोगुणी) अथवा तामसी कहलाती है। इस प्रकार अपनी विशेष प्रकार की श्रद्धा के अनुसार ही वह कपितय लोगों से संगति करता है। अब वास्तविक तथ्य तो यह है कि, जैसा पंद्रहवें अध्याय में कहा गया है, प्रत्येक जीव परमेश्वर का अंश है, अतएव वह मूलतः इन समस्त गुणों से परे होता है। लेकिन जब वह भगवान के साथ अपने सम्बन्ध को भूल जाता है और बद्ध जीवन में भौतिक प्रकृति के संसर्ग में आता है, तो वह विभिन्न प्रकार की प्रकृति के साथ संगति करके अपना स्थान बनाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सत्त्व-अनुरूपा= अस्तित्व के अनुसार; सर्वस्य= सबों की; श्रद्धा= श्रद्धा; मयः= से युक्त; अयम्= यह; पुरुषः= जीवात्मा; यः= जो; यत्= जिसके होने से; श्रद्ध= श्रद्धा; सः= इस प्रकार; एव= निश्चय ही; सः= वह।

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