श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 514

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-49

मा ते व्यथा मा च विमूढ़भावो
दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।
व्यपेतभी: प्रीतमनाः पुनस्त्वं
तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य॥[1]

भावार्थ

तुम मेरे भयानक रूप को देखकर अत्यन्त विचलित एवं मोहित हो गये हो। अब इसे समाप्त करता हूँ हे मेरे भक्त! तुम समस्त चिन्ताओं से पुनः मुक्त हो जाओ। तुम शान्त चित्त से अब अपना इच्छित रूप देख सकते हो।

तात्पर्य
भगवद्गीता के प्रारम्भ में अर्जुन अपने पूज्य पितामह भीष्म तथा गुरु द्रोण के वध के विषय में चिन्तित था। किन्तु कृष्ण ने कहा कि उसे अपने पितामह का वध करने से डरना नहीं चाहिए। जब कौरवों कि सभा में धृतराष्ट्र के पुत्र द्रौपदी को विवस्त्र करना चाह रहे थे, तो भीष्म तथा द्रोण मौन थे, अतः कर्त्तव्यविमुख होने के कारण इनका वध होना चाहिए। कृष्ण ने अर्जुन को अपने विश्वरूप का दर्शन यह दिखाने के लिए कराया कि ये लोग अपने कुकृत्यों के कारण पहले ही मारे जा चुके हैं। यह दृश्य अर्जुन को इसलिए दिखलाया गया, क्योंकि भक्त शान्त होते हैं और ऐसे जघन्य कर्म नहीं कर सकते। विश्वरूप प्रकट करने का अभिप्राय स्पष्ट हो चूका था। अब अर्जुन कृष्ण के चतुर्भुज रूप को देखना चाह रहा था। अतः उन्होंने यह रूप दिखाया भक्त कभी भी विश्वरूप देखने में रुचि नहीं लेता क्योंकि इससे प्रेमानुभूति का आदान-प्रदान नहीं हो सकता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मा - न हो; ते - तुम्हें; व्यथा - पीड़ा, कष्ट; मा - न हो; च - भी; विमूढ-भावः - मोह; दृष्ट्वा - देखकर; रूपम् - रूप को; घोरम् - भयानक; ईदृक् - इस; व्यपेत-भीः - सभी प्रकार के भय से मुक्त; प्रीत-मनाः - प्रसन्न चित्त; पुनः - फिर; त्वम् - तुम; तत् - उस; एव - इस प्रकार; मे - मेरे; रूपम् - रूप को; इदम् - इस; प्रपश्य - देखो ।

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