श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 749

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-20


सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥20॥[1]

भावार्थ

जिस ज्ञान से अनन्त रूपों में विभक्त सारे जीवों में एक ही अविभक्त आध्यात्मिक प्रकृति देखी जाती है, उसे ही तुम सात्त्विक जानो।

तात्पर्य

जो व्यक्ति हर जीव में, चाहे वह देवता हो, मनुष्य हो, पशु-पक्षी हो या जलजन्तु अथवा पौधा हो, एक ही आत्मा को देखता है, उसे सात्त्विक ज्ञान प्राप्त रहता है। समस्त जीवों में एक ही आत्मा है, यद्यपि पूर्व कर्मों के अनुसार उनके शरीर भिन्न-भिन्न हैं। जैसा कि सातवें अध्याय में वर्णन हुआ है, प्रत्येक शरीर में जीवनी शक्ति की अभिव्यक्ति परमेश्वर की पराप्रकृति के कारण होती है। उस एक पराप्रकृति, उस जीवनी शक्ति को प्रत्येक शरीर में देखना सात्त्विक दर्शन है। यह जीवनी शक्ति अविनाशी है, भले ही शरीर विनाशशील हों। जो आपसी भेद है, वह शरीर के कारण है। चूँकि बद्धजीवन में अनेक प्रकार के भौतिक रूप हैं, अतएव जीवनी शक्ति विभक्त प्रतीत होती है। ऐसा निराकार ज्ञान आत्म-साक्षात्कार का एक पहलू है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्व-भूतेषु= समस्त जीवों में; येन= जिससे; एकम्= एक; भावम्= स्थिति; अव्ययम्= अविनाशी; ईक्षते= देखता है; अविभक्तम्= अविभाजित; विभक्तेषु= अनन्त विभागों में बँटे हुए में; तत्= उस; ज्ञानम्= ज्ञान को; विद्धि= जानो; सात्त्विकम्= सतोगुणी।

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