श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 741

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-12


अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ॥12॥[1]

भावार्थ

जो त्यागी नहीं है, उसके लिए इच्छित (इष्ट), अनिच्छित (अनिष्ट) तथा मिश्रित- ये तीन प्रकार के कर्मफल मृत्यु के बाद मिलते हैं। लेकिन जो संन्यासी हैं, उन्हें ऐसे फल का सुख-दुख नहीं भोगना पड़ता।

तात्पर्य

जो कृष्णभावनामय व्यक्ति कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध को जानते हुए कर्म करता है, वह सदैव मुक्त रहता है। अतएव उसे मृत्यु के पश्चात अपने अपने कर्मफलों का सुख-दुख नहीं भोगना पड़ता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अनिष्टम्= नरक ले जाने वाले; इष्टम्= स्वर्ग ले जाने वाले; मिश्रम्= मिश्रित; च= तथा; त्रिविधम्= तीन प्रकार; कर्मणः= कर्म का; फलम्= फल; भवति= होता है; अत्यागिनाम्= त्याग न करने वालों को; प्रेत्य= मरने के बाद; न= नहीं; तु= लेकिन; संन्यासिनाम्= संन्यासी के लिए; क्वचित्= किसी समय, कभी।

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