श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 403

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-16


अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।।[1]

भावार्थ

किन्तु मैं ही कर्मकाण्ड, मैं ही यज्ञ, पितरों को दिया जाने वाला अर्पण, औषधि, दिव्य ध्वनि (मन्त्र), घी, अग्नि तथा आहुति हूँ।

तात्पर्य

ज्योतिष्टोम नामक वैदिक यज्ञ भी कृष्ण है। स्मृति में वर्णित महायज्ञ भी वही हैं। पितृलोक को अर्पित तर्पण या पितृलोक को प्रसन्न करने के लिए किया गया यज्ञ, जिसे घृत रूप में एक प्रकार की औषधि माना जाता है, वह भी कृष्ण ही है। इस सम्बन्ध में जिन मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है, वे भी कृष्ण हैं। यज्ञों में आहुति के लिए प्रयुक्त होने वाली दुग्ध से बनी अनेक वस्तुएँ भी कृष्ण हैं। अग्नि भी कृष्ण है, क्योंकि यह अग्नि पाँच तत्त्वों में से एक है, अतः वह कृष्ण की भिन्ना शक्ति कही जाती है। दूसरे शब्दों में, वेदों में कर्मकाण्ड भाग में प्रतिपादित वैदिक यज्ञ भी पूर्णरूप से कृष्ण हैं। अथवा यह कह सकते है कि जो लोग कृष्ण की भक्ति में लगे हुए हैं उनके लिए यह समझना चाहिए कि उन्होंने सारे वेदविहित यज्ञ सम्पन्न कर लिए हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अहम्–मैं; क्रतुः–वैदिक अनुष्ठान, कर्मकाण्ड; अहम्–मैं; यज्ञः–स्मार्त्त यज्ञ; स्वधा–तर्पण; अहम्–मैं; अहम्–मैं; औषधम्–जड़ीबूटी; मन्त्रः–दिव्य ध्वनि; अहम्–मैं; एव–निश्चय ही; आज्यम्–घृत; अहम्–मैं; अग्निः–अग्नि; अहम्–मैं; हुतम्–आहुति, भेंट।

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