श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 713

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-14


देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥14॥[1]

भावार्थ

परमेश्वर, ब्राह्मणों, गुरु, माता-पिता जैसे गुरुजनों की पूजा करना तथा पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा ही शारीरिक तपस्या है।

तात्पर्य

यहाँ पर भगवान तपस्या के भेद बताते हैं। सर्वप्रथम वे शारीरिक तपस्या का वर्णन करते हैं। मनुष्य को चाहिए कि वह ईश्वर या देवों, योग्य ब्राह्मणों, गुरु तथा माता-पिता जैसे गुरुजनों या वैदिक ज्ञान में पारंगत व्यक्ति को प्रणाम करे या प्रणाम करना सीखें। इन सबका समुचित आदर करना चाहिए। उसे चाहिए कि आंतरिक तथा बाह्य रूप में अपने को शुद्ध करने का अभ्यास करे और आचरण में सरल बनना सीखें। वह कोई ऐसा कार्य न करें, जो शास्त्र-सम्मत न हो। वह वैवाहिक जीवन के अतिरिक्त मैथुन में रत न हो, क्योंकि शास्त्रों में केवल विवाह में मैथुन की अनुमति है, अन्यथा नहीं। यह ब्रह्मचर्य कहलाता है। ये सब शारीरिक तपस्याएँ हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देव= परमेश्वर; द्विज= ब्राह्मण; गुरु= गुरु; प्राज्ञ= तथा पूज्य व्यक्तियों की; पूजनम्= पूजा; शौचम= पवित्रता; आर्जवम्= सरलता; ब्रह्मचर्यम्= ब्रह्मचर्य; अहिंसा= अहिसा; च= भी; शारीरम्= शरीर सम्बन्धी; तपः= तपस्या; उच्यते= कहा जाता है।

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