श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 791

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-57


चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर: ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित: सततं भव ॥57॥[1]

भावार्थ

सारे कार्यों के लिए मुझ पर निर्भर रहो और मेरे संरक्षण में सदा कर्म करो। ऐसी भक्ति में मेरे प्रति पूर्णतया सचेत रहो।

तात्पर्य

जब मनुष्य कृष्णभावनामृत में कर्म करता है, तो वह संसार के स्वामी के रूप में कर्म नहीं करता। उसे चाहिए कि वह सेवक की भाँति परमेश्वर के निर्देशानुसार कर्म करे। सेवक को स्वतन्त्रता नहीं रहती। वह केवल अपने स्वामी के आदेश पर कार्य करता है, उस पर लाभ-हानि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह भगवान के आदेशानुसार अपने कर्तव्य सच्चे दिल से पालन करता है। अब कोई यह तर्क दे सकता है कि अर्जुन कृष्ण के व्यक्तिगत निर्देशानुसार कार्य कर रहा था, लेकिन जब कृष्ण उपस्थित न हों तो कोई किस तरह कार्य करे?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चेतसा= बुद्धि से; सर्व= कर्माणि= समस्त प्रकार के कार्यों की; मयि= मुझ में; संन्यस्य= त्यागकर; मत्-परः= मेरे संरक्षण में; बुद्धि-योगम्= भक्ति के कार्यों की; उपाश्रित्य= शरण लेकर; मत्-चित्तः= मेरी चेतना में; सततम्= चौबीसों घंटे; भव= होओ।

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