श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 338

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-22

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हितान्॥[1]

भावार्थ

ऐसी श्रद्धा से समन्वित वह देवता विशेष की पूजा करने का यत्न करता है और अपनी इच्छा की पूर्ति करता है। किन्तु वास्तविकता तो यह है कि ये सारे लाभ केवल मेरे द्वारा प्रदत्त हैं।

तात्पर्य

देवतागण परमेश्वर की अनुमति के बिना अपने भक्तों को वर नहीं दे सकते। जीव भले ही यह भूल जाय कि प्रत्येक वस्तु परमेश्वर की सम्पत्ति है, किन्तु देवता इसे नहीं भूलते। अतः देवताओं की पूजा तथा वांछित फल की प्राप्ति देवताओं के करण नहीं, अपितु उनके माध्यम से भगवान के कारण होती है। अल्पज्ञानी जीव इसे नहीं जानते, अतः वे मुर्खतावश देवताओं के पास जाते हैं। किन्तु शुद्धभक्त आवश्यकता पड़ने पर परमेश्वर से ही याचना करता है परन्तु वर माँगना शुद्धभक्त का लक्षण नहीं है। जीव सामान्यता देवताओं के पास इसीलिए जाता है, क्योंकि वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए पगलाया रहता है। ऐसा तब होता है जब जीव अनुचित कामना करता है जिसे स्वयं भगवान पूरा नहीं करते। चैतन्यचरितामृत में कहा गया है कि जो व्यक्ति परमेश्वर की पूजा के साथ-साथ भौतिकभोग की कामना करता है वह परस्पर विरोधी इच्छाओं वाला होता है। परमेश्वर की भक्ति तथा देवताओं की पूजा समान स्तर पर नहीं हो सकती, क्योंकि देवताओं की पूजा भौतिक है और परमेश्वर की भक्ति नितान्त आध्यात्मिक है।

जो जीव भगवद्धाम जाने का इच्छुक है, उसके मार्ग में भौतिक इच्छाएँ बाधक हैं। अतः भगवान् के शुद्धभक्त को वे भौतिक लाभ नहीं प्रदान किये जाते, जिनकी कामना अल्पज्ञ जीव करते रहते हैं, जिसके कारण वे परमेश्वर की भक्ति न करके देवताओं की पूजा में लगे रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सः – वह; तया – उस; श्रद्धया – श्रद्धा से; युक्तः – युक्त; तस्य – उस देवता की; आराधनम् – पूजा के लिए; ईहते – आकांशा करता है; लभते – प्राप्त करता है; च – तथा; ततः – उससे; कामान् – इच्छाओं को; मया – मेरे द्वारा; एव – ही; विहितान् – व्यवस्थित; हि – निश्चय ही; तान् – उन।

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