श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 580

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-1


अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृं च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥16॥[1]

भावार्थ

यद्यपि परमात्मा समस्त जीवों के मध्य विभाजित प्रतीत होता है, लेकिन वह कभी भी विभाजित नहीं है। वह एक रूप में स्थित है। यद्यपि वह प्रत्येक जीव का पालनकर्ता है, लेकिन यह समझना चाहिए कि वह सबों का संहारकर्ता है और सबों को जन्म देता है।

तात्पर्य

भगवान सबों के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित हैं। तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि वे बँटे हुए हैं? नहीं। वास्तव में वे एक हैं। यहाँ पर सूर्य का उदाहरण दिया जाता है। सूर्य मध्याह्न समय अपने स्थान पर रहता है, लेकिन यदि कोई चारों ओर पाँच हजार मील की दूरी पर घूमे और पूछे कि सूर्य कहाँ है, तो सभी लोग यही कहेंगे कि वह उसके सिर पर चमक रहा है।

वैदिक साहित्य में यह उदाहरण यह दिखाने के लिए दिया गया है। कि यद्यपि भगवान अविभाजित हैं, लेकिन इस प्रकार स्थित हैं मानो विभाजित हों। यही नहीं, वैदिक साहित्य में यह भी कहा गया है कि अपनी सर्वशक्तिमत्ता के द्वारा एक विष्णु सर्वत्र विद्यमान हैं, जिस तरह अनेक पुरुषों को एक ही सूर्य की प्रतीति अनेक स्थानों में होती है। यद्यपि परमेश्वर प्रत्येक जीव के पालनकर्ता हैं, किन्तु प्रलय के समय सबों का भक्षण कर जाते हैं। इसकी पुष्टि ग्यारहवें अध्याय में हो चुकी है, जहाँ भगवान कहते हैं कि वे कुरुक्षेत्र में एकत्र सारे योद्धाओं का भक्षण करने के लिए आये हैं। उन्होंने यह भी कहा कि वे काल के रूप में सब का भक्षण करते हैं। वे सबके प्रलयकारी और संहारकर्ता हैं। जब सृष्टि की जाती है, तो वे सबों को मूल स्थिति से विकसित करते हैं और प्रलय के समय उन सबको निगल जाते हैं। वैदिक स्तोत्र पुष्टि करते हैं कि वे समस्त जीवों के मूल तथा सबके आश्रय-स्थल हैं। सृष्टि के बाद सारी वस्तुएँ उनकी सर्वशक्तिमत्ता पर टिकी रहती हैं और प्रलय के बाद सारी वस्तुएँ पुनः उन्हीं में विश्राम पाने के लिए लौट आती हैं। ये सब वैदिक स्तात्रों की पुष्टि करने वाले हैं। यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्ब्रह्म तद्विजिज्ञासस्व।[2]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अविभक्तम्=बिना विभाजन के; च=भी; भूतेषु=समस्त जीवों में; विभक्तम्=बँटा हुआ; इव=मानो; च=भी; स्थितम्=स्थित; भूत=भर्त=समस्त जीवों का पालक; च=भी; तत्=वह; ज्ञेयम्=जानने योग्य; ग्रसिष्णु=निगलते हुए, संहार करने वाला; प्रभविष्णु =विकास करते हुए; च=भी।
  2. तैत्तिरीय उपनिषद् 3.1

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः