श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 773

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-44


कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥[1]

भावार्थ

कृषि करना, गो-रक्षा तथा व्यापार वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं। और शूद्रों का कर्म श्रम तथा अन्यों की सेवा करना है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कृषि= हल जोतना; गो= गायों की; रक्ष्य= रक्षा; वाणिज्यम्= व्यापार; वैश्य= वैश्य का; कर्म= कर्तव्य; स्वभाव-जम्= स्वाभाविक; परिचर्या= सेवा; आत्मकम्= से युक्त्; कर्म= कर्तव्य; शूद्रस्य= शूद्र के; अपि= भी; स्वभाव= जम्= स्वाभाविक।

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