श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-1
श्रीभगवानुवाच
श्रीभगवान ने कहा– हे पृथापुत्र! अब सुनो कि तुम किस तरह मेरी भावना से पूर्ण होकर और मन को मुझमें आसक्त करके योगाभ्यास करते हुए मुझे पूर्णतया संशयरहित जान सकते हो।
भगवद्गीता के इस सातवें अध्याय में कृष्णभावनामृत की प्रकृति का विशद वर्णन हुआ है। कृष्ण समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं और वे इन्हें किस प्रकार प्रकट करते हैं, इसका वर्णन इसमें हुआ है। इसके अतिरिक्त इस अध्याय में इसका भी वर्णन है कि चार प्रकार के भाग्यशाली व्यक्ति कृष्ण के प्रति आसक्त होते हैं और चार प्रकार के भाग्यहीन व्यक्ति कृष्ण की शरण में कभी नहीं आते। प्रथम छः अध्यायों में जीवात्मा को अभौतिक आत्मा के रूप में वर्णित किया गया है, जो विभिन्न प्रकार के योगों द्वारा आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त हो सकता है। छठे अध्याय के अन्त में यह स्पष्ट कहा गया है कि मन को कृष्ण पर एकाग्र करना या दूसरे शब्दों में कृष्णभावनामृत ही सर्वोच्च योग है। मन को कृष्ण पर एकाग्र करने से ही मनुष्य परमसत्य को पूर्णतया जान सकता है, अन्यथा नहीं। निर्विशेष ब्रह्मज्योति या अन्तर्यामी परमात्मा की अनुभूति परमसत्य का पूर्ण ज्ञान नहीं है, क्योंकि वह आंशिक होती है। कृष्ण ही पूर्ण तथा वैज्ञानिक ज्ञान हैं और कृष्णभावनामृत में ही मनुष्य को सारी अनुभूति होती है। पूर्ण कृष्णभावनामृत में मनुष्य जान पाता है कि कृष्ण ही निस्सन्देह परम ज्ञान हैं। विभिन्न प्रकार के योग तो कृष्णभावनामृत के मार्ग के सोपान सदृश हैं। जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत ग्रहण करता है, वह स्वतः ब्रह्मज्योति तथा परमात्मा के विषय में पूरी तरह जान लेता है। कृष्णभावनामृत योग का अभ्यास करके मनुष्य सभी वस्तुओं को-यथा परमसत्य, जीवात्माएँ, प्रकृति तथा साज-सामग्री समेत उनके प्राकट्य को पूरी तरह जान सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीभगवान् उवाच – भगवान् कृष्ण ने कहा; मयि – मुझमें; आसक्त-मनाः – आसक्त मन वाला; पार्थ – पृथापुत्र; योगम् – आत्म-साक्षात्कार; युञ्जन् – अभ्यास करते हुए; मत्-आश्रयः – मेरी चेतना (कृष्णचेतना) में; असंशयम् – निस्सन्देह; समग्रम् – पूर्णतया; माम् – मुझको; यथा – जिस तरह; ज्ञास्यसि – जान सकते हो; तत् – वह; शृणु – सुनो।
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