श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 239

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
अध्याय 5 : श्लोक-10

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।[1]

भावार्थ

जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है।

तात्पर्य

यहाँ पर ब्रह्मणि का अर्थ “कृष्णभावनामृत में” है। यह भौतिक जगत प्रकृति के तीन गुणों की समग्र अभिव्यक्ति है जिसे प्रधान की संज्ञा दी जाती है। वेदमन्त्र सर्वं ह्येतद्ब्रह्म[2], तस्माद एतद्ब्रह्म नामरूपमन्नं च जायते [3] तथा भगवद्गीता में[4]मम योनिर्महद्ब्रह्म से प्रकट है कि जगत् की प्रत्येक वस्तु ब्रह्म की अभिव्यक्ति है और यद्यपि कार्य भिन्न-भिन्न रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु तो भी वे कारन से अभिन्न है। इशोपनिषद में कहा गया है कि सारी वस्तुएँ परब्रह्म या कृष्ण से सम्बन्धित हैं, अतएव वे केवल उन्हीं की हैं। जो यह भलीभाँति जानता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की है और वे ही प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं अतः प्रत्येक वस्तु भगवान की सेवा में ही नियोजित है, उसे स्वभावतः शुभ-अशुभ कर्मफलों से कोई प्रयोजन नहीं रहता। यहाँ तक कि विशेष प्रकार का कर्म सम्पन्न करने के लिए भगवान द्वारा प्रदत्त मनुष्य का शरीर भी कृष्णभावनामृत में संलग्न किया जा सकता है। तब यह पापकर्मों के कल्मष से वैसे ही परे रहता है जैसे कि कमलपत्र जल से रहकर भी भीगता नहीं। भगवान गीता [5] में भी कहते है– मयित सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य – सम्पूर्ण कर्मों को मुझे (कृष्ण को) समर्पित करो। तात्पर्य यह है कि कृष्णभावनामृत-विहीन पुरुष शरीर एवं इन्द्रियों को अपना स्वरूप समझ कर कर्म करता है, किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति यः समझ कर कर्म करता है कि वह देह कृष्ण की सम्पत्ति है, अतः इसे कृष्ण की इसे में प्रवृत्त होने चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ब्रह्मणि – भगवान् में; आधाय – समर्पित करके; कर्माणि – सारे कार्यों को; सङ्गम् – आसक्ति; त्यक्त्वा – त्यागकर; करोति – करता है; यः – जो; लिप्यते – प्रभावित होता है; न – कभी नहीं; सः – वह; पापेन – पाप से; पद्म-पत्रम् – कमल पत्र; इव – के सदृश; अम्भसा – जल के द्वारा।
  2. माण् डूक्य उपनिषद् २
  3. मुण्डक उपनिषद् 1.2.10
  4. 14.3
  5. भगवान गीता 3.30

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