श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 715

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-16


मन:प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह: ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥16॥[1]

भावार्थ

तथा संतोष, सरलता, गम्भीरता, आत्म-संयम एवं जीवन की शुद्धि- ये मन की तपस्याएँ हैं।

तात्पर्य

मन को संयमित बनाने का अर्थ है, उसे इन्द्रियतृप्ति से विलग करना। उसे इस तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिए जिससे वह सदैव परोपकार के विषय में सोचे। मन के लिए सर्वोत्तम प्रशिक्षण विचारों की श्रेष्ठता है। मनुष्य को कृष्णभावनामृत से विचलित नहीं होना चाहिए और इन्द्रियभोग से सदैव बचना चाहिए। अपने स्वभाव को शुद्ध बनाना कृष्णभावनाभावित होना है। इन्द्रियभोग के विचारों से मन को अलग रख करके ही मन की तुष्टि प्राप्त की जा सकती है। हम इन्द्रियभोग के बारे में जितना सोचते हैं, उतना ही मन अतृप्त होता जाता है। इस वर्तमान युग में हम मन को व्यर्थ ही अनेक प्रकार के इन्द्रियतृप्ति के साधनों में लगाये रखते हैं, जिससे मन संतुष्ट नहीं हो पाता। अतएव सर्वश्रेष्ठ विधि यही है कि मन को वैदिक साहित्य की ओर मोड़ा जाय, क्योंकि यह संतोष प्रदान करने वाली कहानियों से भरा है- यथा पुराण तथा महाभारत। कोई भी इस ज्ञान का लाभ उठा कर शुद्ध हो सकता है। मन को छल-कपट से युक्त से मुक्त होना चाहिए और मनुष्य को सबके कल्याण (हित) के विषय में सोचना चाहिए। मौन (गम्भीरता)का अर्थ है कि मनुष्य निरन्तर आत्मसाक्षात्कार के विषय में सोचता रहे। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति पूर्ण मौन इस दृष्टि से धारण किये रहता है। मन-निग्रह का अर्थ है- मन को इन्द्रियभोग से पृथक करना। मनुष्य को अपने व्यवहार में निष्कपट होना चाहिए और इस तरह उसे अपने जीवन (भाव) को शुद्ध बनाना चाहिए। ये सब गुण मन की तपस्या के अन्तर्गत आते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनः-प्रसादः= मन की तुष्टि; सौम्यत्वम्= अन्यों के प्रति कपट भाव से रहित; मौनम्= गम्भीरता; आत्म= अपना; विनिग्रहः= नियन्त्रण, संयम; भाव= स्वभाव का; संशुद्धिः= शुब्दीकरण; इति= इस प्रकार; एतत्= यह; तपः= तपस्या; मानसम्= मन की; उच्यते= कही जाती है।

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